गुरुवार, 22 जुलाई 2010

शब्दों का सफर

शब्दों का सफर

सोमवार, 8 मार्च 2010

छुट्टी का दिन






शशिभूषण द्विवेदीपूरा हफ्ता बीत जाता है छुट्टी के दिन का इंतजार करते और जब छुट्टी का दिन आता है तो मन और भी आतंकित हो जाता है। पूरा दिन एक ऊब और बेचैनी के साथ कैसे कटेगा-सोचते ही मन और भी झल्ला उठता है। छुट्टी के दिन की दिनचर्या भी अजीब होती है। देर तक सोने की इच्छा के बावजूद नींद लगभग समय पर ही खुलती है। कुनमुनाया, अलसाया...थोड़ी देर और सो लेने की कोशिश में थोड़ा सा वक्त और जाया हो जाता है। आखिर न चाहते हुए भी उठना ही पड़ता है। हाथ-मुंह धोकर ट्रैक सूट पहनता हूं। देखता हूं पत्नी अभी तक मिट्टी के लोंदे की तरह बिस्तर पर बिखरी पड़ी है। उसे पता है कि आज छुट्टी का दिन है सो वह आज देर तक सोएगी। मन करता है कि उसके फैले हुए नितंबों पर एक जोरदार लात मारूं मगर फिर खुद को संभाल लेता हूं। जानता हूं कि अब चाहे अनचाहे सारा दिन इसी के साथ गुजारना है सो सुबह-सुबह उसे चूमने में ही भलाई है। मैं उसे चूमता हूं लेकिन सुबह-सुबह उसके मुंह की बास मेरे भीतर एक अजीब तरह की मितली पैदा कर देती है। मन करता है कि उसकी बिखरी हुई देह पर उल्टी कर दूं लेकिन कर नहीं पाता। बहुत सी चीजें हम चाहकर भी नहीं कर पाते। जैसे हम चाहकर भी मंहगाई को नहीं रोक पाते। हां, मंहगाई से याद आया-दो महीने हो गए बिजली का बिल जमा किए। इस महीने जमा न किया तो कनेक्शन ही कट जाएगा। सोचा था इस छुट्टी में करा ही दूंगा, हर बार टल जाता है। हालांकि बिजली पानी का बिल जमा कराना भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। छुट्टी वाले दिन वैसे भी आधे ही दिन बिल जमा होते हैं। फिर इतनी लंबी लाइन लगती है कि पूछो मत। समझिए कि आधा दिन तो इसी में गया। मैं घड़ी देखता हूं। सुबह के सात बज रहे हैं। मैं पत्नी को घर में सोता छोडक़र बाहर घूमने निकल जाता हूं। सुबह घूमने के बहाने एक पंथ दो काज हो जाते हैं। दरअसल घर खर्च कम करने की कवायद में दो तीन महीने पहले पत्नी ने घर आने वाला अखबार बंद करा दिया। पत्नी को लगता है कि अखबार खरीदना फिजूलखर्ची है और अखबार पढऩा समय की बर्बादी। आखिर होता ही क्या है अखबारों में आजकल-वही रोज की बासी खबरें-चोरी, छिनैती, बलात्कार, घोटाले...। लेकिन सुबह-सुबह अखबार पढऩे की अपनी बरसों पुरानी आदत मैं चाहकर भी नहीं छोड़ पाया। सुबह सुबह अखबार न पढ़ो तो लगता है कि दिन की ठीक से शुरुआत ही नहीं हुई। पहले मैं सुबह सुबह बाथरूम में अखबार लेकर घुस जाता था और नित्यकर्म करते हुए पूरा अखबार चाट लेता था। फिर तरोताजा होकर बाहर आता था। तब तक पत्नी भी चाय बनाकर ले आती थी और हम इत्मीनान से चाय पीते थे। लेकिन अब वे सब बीते दिनों की बातें हो गईं। अब तो सुबह टहलने के बहाने चाय की दुकान पर खड़े खड़े ही अखबार भी पढ़ लेता हूं। हालांकि शुरू शुरू में खाली-पीली अखबार पढऩे पर चायवाला भी मुझे बहुत तिरस्कारपूर्ण नजरों से घूरता था और बार बार आकर पूछ जाता था कि साहब चाय चलेगी। मेरे मना करने पर वह बुरा सा मुंह बना लेता। कभी कभी तो एेसा भी हुआ कि उसने सीधे सीधे मुझसे कह दिया कि साहब गाहकों को बैठने दीजिए। धंधे का टाइम है। आपका क्या है, आप तो मुफत में अखबार पढक़र चले जाएंगे। धंधा तो हमारा खोटा होगा। उसकी एेसी बातों का मुझे सचमुच बहुत बुरा लगता था। इस बुरे लगने के चलते ही अब कभी कभी मैं उसे हाफ चाय या सिगरेट का आर्डर दे देता हूं और बदले में वह मुझे चुपचाप अखबार पढऩे देता है। हालांकि हाफ कप चाय के बदले घंटे भर उसे मेरा अखबार पढऩा अब भी अखरता है लेकिन बेशर्मी से मैंने अब उसकी ओर ध्यान देना छोड़ दिया है।चाय की दुकान पर सबसे पहले मैं अपना राशिफल देखता हूं, फिर मौसम का हाल। राशिफल में लिखा है कि आज कोई शुभ सूचना मिलेगी और धनोपर्जन होगा। मैं सोचता हूं कि आज महीने की बीसवीं तारीख है। धनोपर्जन की तो कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती बल्कि खर्च ही खर्च होना है। यही हाल मौसम के हाल का है। उसमें लिखा है आसमान साफ रहेगा लेकिन कहीं कहीं हल्की बूंदाबांदी हो सकती है। मगर यहां तो सुबह से ही जबरदस्त बारिश के आसार नजर आ रहे हैं। अखबार में और भी तमाम खबरें हैं-मसलन पेट्रोलियम मंत्री ने पेट्रोल और डीजल के दामों में जबरदस्त बढ़ोत्तरी के संकेत दिए हैं और कृषि मंत्री का कहना है कि मंहगाई रोकने के लिए उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। केंद्र इसके लिए राज्य सरकारों को दोष दे रहा है और राज्य सरकारें केंद्र को कोस रही हैं। बयान, बयान और बयान। पूरा अखबार नेताओं और मंत्रियों की बयानबाजी से अटा पड़ा है। मैं सिगरेट के साथ हाफ चाय सुडक़कर अखबार रख देता हूं और सोचता हूं अब सिगरेट भी छोड़ ही देनी चाहिए। सेहत और खर्च दोनों लिहाज से यह एक अच्छा विचार है। हालांकि यह अच्छा विचार इससे पहले भी मुझे सैकड़ों बार आया है लेकिन उस पर अमल करने का विचार रोज अगले दिन के लिए टल जाता है।मैं देखता हूं घड़ी में आठ बज रहे हंै और आसमान में बादल घने हो रहे हैं। मुझे जल्द ही नहा-धोकर बिजलीघर जाना होगा वरना बारिश से सब गुड़ गोबर हो सकता है। मैं तेज कदमों से घर की ओर लौट पड़ता हूं। घर में पत्नी रसोई में उठापटक कर रही है। यह उसकी रोज की खीझ है जो रसोई में बर्तनों पर निकलती है जिसे मैं रोज की तरह ही सुनकर अनसुना कर देता हूं। लेकिन तभी उसकी खीझभरी आवाज आती है-‘गैस खत्म हो गई है। कितने दिन से कह रही थी बुक करवा दो...लेकिन कोई सुने तब न...’-‘गैस के दाम भी बढ़ गए हैं।’ मैं कहता हूं।-‘तो?’-‘तो...तो कुछ नहीं। आज बिजलीघर जाना है बिल जमा कराने।’-‘पहले गैस का कुछ इंतजाम करो।’मैं नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाता हूं। पत्नी की बड़बड़ाहट नल के पानी के शोर में गुम हो जाती है। मेरे नहाकर बाथरूम से बाहर आने तक पत्नी ने नाश्ता तैयार कर दिया है। नाश्ता करते हुए मैं गुनगुनाने लगता हूं-गिलोरी बिना चटनी कैसे बनी...। लेकिन पत्नी मुझे अनसुना करते हुए बड़बड़ा रही है जैसे मैं उसे अनसुना करते हुए गुनगुना रहा हूं।-‘सिलेंडर झुकाकर थोड़ी सी गैस निकल आई लेकिन जैसे भी हो दोपहर तक कहीं से भी गैस का बंदोबस्त करो वरना खाना भी नहीं बन पाएगा। कितनी बार कहा कि दूसरा सिलेंडर बुक करवा लो। कभी अचानक गैस खत्म हो जाए तो ये दिन तो न देखना पड़े॥मगर सुनता कौन है...’-‘अब ठीक है॥बिजलीघर जाते हुए बुक करवाता आऊंगा।’-‘बुक वुक नहीं...गैस आज ही आनी चाहिए और अब्भी।’ मैं कोई जवाब नहीं देता और तैयार होकर घर से निकल पड़ता हूं। दस बज गए हैं। बाहर हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई है। शुक्र है कि मौसम को देखते हुए छतरी साथ लेता आया था। बिजलीघर पहुंचते पहुंचते बारिश और भी तेज हो गई लेकिन बिल जमा कराने वालों की लाइन में कहीं कोई कमी नहीं आई। बिल काउंटर के पास कीचड़ ही कीचड़ हो गया है। बारिश की फुहारों से बचने के लिए लोग ठेलमठेल मचाए हैं। लाइन इतनी लंबी है कि लगता नहीं कि दो घंटे बाद भी मेरा नंबर आ पाएगा। काउंटर क्लर्क इतना सुस्त है कि एक एक आदमी पर दस दस मिनट लगा रहा है। लोग कुनमुना रहे हैं और सरकारी कर्मचारियों की काहिली को कोस रहे हैं। बीच बीच में कोई काउंटर क्लर्क का जान पहचान वाला आ जाता है तो उसका काम आउट आफ वे जाकर भी हो जाता है जिससे लाइन में लगे लोगों का गुस्सा बढ़ जाता है और हल्ला शुरू हो जाता है। हालांकि इस हल्ले का कोई असर नहीं होता। बस लोग बड़बड़ाते रहते हैं और जान पहचान वाले या दबंग लोग लाइन को धकियाकर अपना काम करा ले जाते हैं। मैं घड़ी देखी साढ़े ग्यारह होने को आए। अब भी पांच-सात लोग लाइन में हैं। मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। लगता नहीं कि आज मेरा नंबर आ पाएगा। एक एक पल भारी होता जा रहा है। ग्यारह बजकर पचास मिनट हो गए हैं। दो लोग अब भी मेरे आगे हैं। मैं हड़बड़ी में हूं-भइया जरा जल्दी करो। काउंटर क्लर्क घुडक़र मेरी ओर देखता है। उसकी घुडक़ी में एक हिकारत है।-‘काम ही कर रहा हूं। कोई मक्खी तो मार नहीं रहा।’ जानता हूं कि क्लर्क से बहस करने का कोई मतलब नहीं, वरना अभी काउंटर बंद कर देगा। बहरहाल, मेरा नंबर आखिरकार आ ही गया। घड़ी में अभी बारह बजने में पांच मिनट बाकी हैं। मैं जैसे ही बिल की रसीद उसकी ओर बढ़ाता हूं, वह पेशाब का बहाना करके उठ जाता है। मैं उसकी इस हरकत पर खीझ उठता हंू पर कुछ कह नहीं पाता। पांच मिनट बाद क्लर्क लघुशंका से निपटकर लौटता है और एेलान कर देता है कि टाइम खत्म हो गया है, अब कल आना। मेरा दिल धक से रह जाता है। दो घंटे की मेहनत पर पानी फिरता नजर आता है। अब मैं याचना की मुद्रा में आ गया हूं।-‘दो घंटे से खड़ा हूं सर...प्लीज जमा कर लीजिए बिल॥वरना..’-‘वरना क्या? हम भी दो घंटे से काम ही कर रहे हैं, कोई झख तो नहीं मार रहे। इतनी ही जल्दी थी तो समय पर क्यों नहीं आए?’-‘प्लीज सर...बड़ी मुश्किल से आ पाया हूं...मेहरबानी होगी...’ मेरे चेहरे पर जाने कैसा तो दीनता का भाव है कि क्लर्क थोड़ा पसीजने लगता है।-‘अच्छा लाओ...लेकिन बाकी सब कल आएं।’ मेरी जान में थोड़ी जान आती है। आखिरकार मेरा बिल जमा हो जाता है मगर पीछे से फिर वही शोर शुरू हो जाता है-प्लीज सर...प्लीज सर... लेकिन तब तक खिडक़ी बड़ी बेरहमी से बंद हो जाती है। मैं खुश हूं कि आखिरकार मेरा बिल जमा हो गया। मुझमें एक विजेता का सा भाव घर करने लगता है।बाहर बारिश और भी तेज हो गई है। घड़ी साढ़े बारह बजा रही है। अब मुझे फौरन गैस स्टेशन की ओर भागना होगा वरना घर में खाना नहीं बनेगा। गैस स्टेशन पहुंचते पहुंचते एक डेढ़ बज जाते हैं मगर बारिश थमने का नाम नहीं लेती। मैं लगभग आधे से ज्यादा भीग चुका हूं। स्टेशन पहुंचने पर पता चलता है कि आज तो छुट्टी का दिन है। ‘हे भगवान, अब क्या होगा?’ मेरे हाथ-पांव फूलने लगते हैं। मैं आस-पास लोगों से पूछता हूं। रिरियाता हूं। घर में गैस खत्म होने का हवाला देता हूं। मेरे पेट में चूहे भी कूदने लगे हैं। घर में पत्नी भी भूखी होगी, मैं सोचता हूं। तभी बीड़ी का सुट्टा लगाता हुआ एक दलाल टाइप आदमी मेरे पास आता है। वह घूरकर एक नजर मेरी ओर देखता है।-‘गैस चाहिए?’-‘हां।’-‘ब्लैक में मिलेगा। तीस परसेंट एक्स्ट्रा।’-‘ये तो बहुत ज्यादा है। कुछ कम में नहीं होगा?’-‘लेना है तो बोलो वरना रास्ता नापो।’ मुझे पत्नी का खीझ और हताशा से भरा चेहरा याद आ जाता है। मैं फौरन हां कह देता हूं।-‘कितना लगेगा?’-‘सात सौ रुपये।’ मैं पर्स टटोलता हूं। पर्स में सिर्फ पांच सौ रुपये हैं। मैं पांच सौ रुपये उसे सौंप देता हूं।-‘सिलेंडर घर पहुंचाओ। बाकी के पैसे घर पर दूंगा।’-‘सिलेंडर घर पहुंचाने के पचास रुपये एक्स्ट्रा लगेंगे।’ वह मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है। मैं कहता हूं-‘ये तो ज्यादती है।’-‘ज्यादती वादती कुछ नहीं। एक तो छुट्टी का दिन, ऊपर से मौसम देख रहे हैं।’ मैं झल्लाता हूं मगर कुछ नहीं कर पाता। फौरन सिलेंडर घर पहुंचाने को कहकर उसके साथ चल देता हूं। घड़ी में दो बज रहे हैं। बारिश अब भी रुकने का नाम नहीं ले रही। हालांकि गैस मिल जाने से मेरे भीतर एक सुकून सा आ गया है। अब बारिश से भीगी मिट्टी की सोंधी गंध मुझे अच्छी लगने लगी है।सिलेंडर के साथ जैसे-तैसे मैं घर पहुंचता हूं। ढाई बज चुके हैं। पत्नी का पारा सातवें आसमान पर है। मैं उसकी ओर ध्यान नहीं देता और गैसवाले का बकाया भुगतान कर उसे रवाना कर देता हूं। पत्नी भी बिना मुझसे कुछ कहे सिलेंडर रसोई में रखवा लेती है और खाना बनाने जुट जाती है। कुकर की सीटी और खाने की खुशबू से मेरी भूख और भी बढ़ जाती है। इस बीच मैं रूठी पत्नी को मनाने की योजना बनाने लगता हूं। साढ़े तीन तक खाना बनकर तैयार हो जाता है और मैं झटपट खाने बैठ जाता हूं। खाना आज कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ट लग रहा है। मैं भरपेट खाकर एक जोरदार डकार लेता हूं। पत्नी भी चुपचाप खाना खाकर बर्तन समेटकर रसोई में चली जाती है। मैं आराम की मुद्रा में थोड़ी देर टीवी देखने के लिए टीवी ऑन करता हूं मगर बिजली गुल है। कमबख्त बिजली में भी इन दिनों सात-आठ घंटे की कटौती होने लगी है। रोज रोज के धरना प्रदर्शन के बावजूद बिजली की हालत इन दिनों बद से बदतर होती जा रही है। अभी चार दिन पहले गुस्साए लोगों ने बिजली विभाग के एसडीओ की उसके दफ्तर में सरेआम पिटाई ही कर दी। मगर सरकार के कान पर जूं रेंगने का नाम नहीं लेती। हारकर मैं बिस्तर पर लौटकर लेट जाता हूं। हालांकि नींद फिर भी नहीं आती। मैं बार-बार घड़ी देखता हूं। साढ़े चार बज चुके हैं। मैं पत्नी को मनाने की तरकीबें सोचता हूं और उठकर रसोई में चला आता हूं जहां पत्नी चाय बना रही है। इस बेचारी को छुट्टी के दिन भी आराम नहीं सिवाय सुबह थोड़ी देर ज्यादा सो लेने के। मैं उसे पीछे से अपनी बाहों में भर लेता हूं। वह झुंझला जाती है।-‘क्या कर रहे हो...छोड़ो...खिडक़ी खुली है कोई देख लेगा।’-‘देखता है तो देखे...अब तो खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों।’ मैं रोमांटिक मूड में गुनगुनाने लगता हूं।-‘क्या बात है..बड़ी मस्ती के मूड में हो।’ पत्नी की आंखों में शरारत है। उसका गुस्सा काफूर हो उठा है। मैं उसके इसी अंदाज पर रीझ उठता हूं। तमाम परेशानियां उसकी एक मुस्कान के आगे बौनी हो जाती हैं। मैं झट से उसके होठों को चूम लेता हूं और उसे बाहों में भरे भरे नाचने लगता हूं-‘छुट्टी का दिन है कि मस्ती में हैं हम...मस्त मस्त मस्ती..याहू्...’ पत्नी प्यार से मुझे झिडक़ देती है,‘अब बचपना छोड़ो और चलो चाय पियो।’ मैं चाय का कप लिए उसके साथ ड्राइंगरूम में आ जाता हूं। अब तक बिजली भी आ गई है। हम टीवी देखते हुए चाय पीने लगते हंै। शाम के साढ़े पांच बज चुके हैं। पत्नी बाजार चलने की फरमाइश करने लगती है। मैं उसका मूड खराब करना नहीं चाहता। हालांकि मन ही मन आज हुए खर्च का हिसाब लगाने लगता हूं। एक ही दिन में कुल चार हजार की चपत लग चुकी है। ‘खैर..मौसम खुशनुमा है और छुट्टी का दिन खराब नहीं करना है।’ मैं सोचता हूं और फौरन बाजार के लिए तैयार होने लगता हूं। हम बाजार में हैं। शाम के सात बज रहे हैं। अंधेरा घिरने लगा है। बाजार में चारों ओर जगमगाहट है। लगता है जैसे मौसम का लुत्फ लेने पूरा शहर घरों से बाहर निकल आया है। नए-नए जोड़े हाथों में हाथ में डाले इत्मीनान से टहल रहे हैं या आइसक्रीम खा रहे हैं।-‘कितने दिन हुए इतने अच्छे मौसम में हमें बाजार आए...न।’ पत्नी कहती है और मैं उसकी हां में हां मिला देता हूं। टहलते टहलते हम एक शापिंग मॉल के सामने आ जाते हैं। मॉल रंग बिरंगी रोशनियों में जगमगा रहा है और अपनी भव्यता और वैभव से पूरे शहर को मुंह चिढ़ा रहा है। शहर में पिछले दो साल में पांच मॉल और मल्टीप्लैक्स खुले हैं और सब एक से बढक़र एक। इस बीच रेहड़ी और खोमचे वालों की एक पूरी दुनिया ही उजड़ गई है और साप्ताहिक हाट बाजार का हाल बद से बदतर हो गया है। मॉल के आस पास रेहड़ी और खोमचे लगाने की सख्त मनाही है और कभी भूल से भी किसी ने एेसा दुस्साहस कर लिया तो उसके लिए पुलिस का जालिम डंडा तो है ही। बहरहाल, मॉल के आगे लंबी लंबी गाडिय़ों की लाइन लगी है और उसमें चढ़ते उतरते लोग मुझमें बेतरह हीनभावना पैदा कर रहे हैं। वे किसी दूसरी दुनिया से आए हुए लगते हैं जिनकी जेबें नोटों से भरी हुई हैं और जिनके चेहरे पर कहीं किसी दु:ख, परेशानी या मुश्किल के निशान नहीं हैं।मॉल के भीतर जगमग रोशनियों के बीच वस्तुओं का पूरा बाजार है जिनके ऊपर उनकी कीमतों के टैग लगे हैं। यहां हर चीज ब्रांडेड है और ब्रांड की ही कीमत है। लोग यहां चीजें अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं, ब्रांड के हिसाब से लेते हैं। एक ब्रांडेड जींस की कीमत चार हजार, जूता सात हजार और बित्ते भर टॉप दो हजार। मेरे बगल में खड़ी एक अल्ट्रा मॉड लडक़ी झटपट एक जींस और टॉप उठाती है और उन्हें आजमाने के लिए ट्रायल रूम में घुस जाती है। दो मिनट बाद जब वह बाहर आती है तो मैं देखता हूं उन कसे हुए कपड़ों में उसका शरीर जैसे फट पडऩे का आतुर है। डीप नेक टॉप और लो हिप जींस में उसका शरीर और भी दिलकश हो उठा है। मैं पत्नी से नजरें बचाकर उसके शरीर के खुले गोपन अंगों को घूरने लगता हूं और वह क्रेडिट कार्ड से पेमेंट कर बेपरवाही से टहलते हुए मॉल से बाहर निकल जाती है। पत्नी वहां तमाम चीजों को ललचाई निगाहों से उठा उठाकर देख रही है फिर उनकी कीमतें पढक़र मायूस हो जाती है और चुपचाप उन्हें यथास्थान रख देती है। कुछ जरूरी चीजों की खरीदारी के बाद हम जगमग रोशनियों के उस संसार से बाहर आ जाते हैं। घड़ी में साढ़े आठ बज रहे हैं। रास्ते में गोलगप्पे खाने के बाद अपनी तमाम तमाम अधूरी इच्छाओं के साथ हम घर की ओर लौट पड़ते हैं। आखिर सुबह दफ्तर के लिए जल्दी उठना भी तो है।





शशिभूषण द्विवेदी हिंदी की युवा पीढी के जाने माने कथाकार हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित हैं। एक कहानी संग्रह : ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियां। पिछले कई सालों के बाद उनकी यह कहानी : 'छुट्टी का दिन'। संपर्क :405, सुपरटेक अपार्टमेंट, 5/५3, सेक्टर-५, राजेंद्र नगर, साहिबाबाद, (गाजियाबाद) उ।प्र.

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

दफ़्तर / हरे प्रकाश उपाध्याय




मेरे घर से दफ़्तर की दूरी


अलग अलग जगह रहने वाले


मेरे सहकर्मियों के लगभग बराबर


एक तरफ़ से मापो तो सोलह घंटे हैं


दूसरी तरफ़ से आठ घंटे हैं


रोज़ रोज़ जंज़ीर गिराओ तो कुछ समय,


जो कि दूरी का भी एक पैमाना है इधर से उधर सरक जाता है


इस तरफ़ से मापो तो भागा-भागी है, कांव-कीच है


एसाइनमेण्ट, कान्ट्रैक्ट, सैलरी, एबसेण्ट आदि की सहूलियतें हैं


उस तरफ से मापो तो थोड़ी-सी नींद, थोड़ी-सी प्यास है


थोड़ी-सी छुट्टियों, रविवार, बाज़ार, इंडिया गेट, लोटस टेम्पल, बिड़ला मंदिर आदि के पड़ाव हैं


इन सारी चीज़ों का अर्थ राजधानी के दफ़्तर के निमित्त


ज़िन्दगी में लगभग एक ही है


हर चीज़ में थोड़ी सी रेत है, चप-चप पसीना है, बजता हुआ हार्न है


इस दूरी को जो रेल मापती है उसमें खूब रेलमपेल है


इन सब चीज़ों को जो घड़ी नचाती है


उसमें चांद, आकाश, प्रेम, नफ़रत, उमंग, हसरत, सपना सेकंड के पड़ाव भर हैं


यह साजिशों, चालाक समझौतों, कनखियों और सामाजिक होने के आवरण में


अकेला पड़ जाने की हाहा...हीही...हूहू...में व्यक्त समय है


इस घड़ी की परिधि घिसे हुए रूटीन की दूरी भर है


समाज की सारी घटनाएँ प्रायोजित हैं


जल्दी विस्मृत होती हैं अच्छा है... अच्छा है...


दफ़्तर और घर के बीच आ-जा रही ज़िन्दगी में


कोई दोस्त न दुश्मन है


सब सिर्फ़ मौक़े का खेल है


यों ही नहीं बदल जाता है रोज़ राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का मुहावरा


ये सारे लोग लगभग एक जैसे जो चारों ओर फैल गये


इनकी ज़िन्दगी में थोड़ा-सा कर्ज, थोड़ा सा बैंक बैलेन्स थोड़ा-सा मंजन घिसा हुआ ब्रश है


बगैर साबुन की साफ़ शफ़्फ़ाक कमीज़ है पैण्ट है टाई है


आटो मेट्रो लोकल ट्रेन और उनका एक घिसा हुआ पास है


सुबह का दस है, शाम का दस है


बाक़ी सब धूल है जो पैर से उड़ कर सिर पर सिर से उड़ कर पैर पर बैठती रहती है


और पूरा शरीर उस उड़ान की बीट से पटा रहता है


महंगी कार में चलने वाले अपनी जानें यह कविता दूरी के बारे में सोचने वालों की कविता है


जैसे मेरी सुबह दफ़्तर जाने के लिए होती है


और शाम दफ़्तर से घर लौट आने के लिए


दोपहर दफ़्तर के लंच आवर के लिए रात में मैं दफ़्तर जाने के लिए आराम करता हूँ


सोता हूँ


उसके पहले टी०वी० देखता हूँ


बीवी को गले लगाता हूँ


उसके हाथों से बनाया खाना खाकर उसकी बाहों में जल्दी सो लेता हूँ


कि सुबह जब हो


मेरे दफ़्तर जाने में तनिक देर नहीं हो


तीन दिन की थोड़ी-थोड़ी देर पूरे एक दिन का भरपूर काम करने के बावजूद


आकस्मिक अवकाश होती है


नींद में मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ


सपने में दफ़्तर के सहकर्मियों के षड्यंत्र सूंघता हूँ


जिससे बहुत तेज़ बदबू आती है


इस बदबू में मुझे धीरे-धीरे बहुत मज़ा आता है


मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ


बॉस को चूतिया कह कर चिल्लाता हूँ


नींद में हाथ पैर भांज-भांज कर बॉस की, कलीग की, सीनियर की, जूनियर की


दफ़्तर के कोने में काजल लगाये बैठी उस लड़की की ऐसी-तैसी कर देता हूँ


इस तरह चरम-सुख पाता हूँ मैं


मेरे इस करतब को देख कर नहीं जानता बगल में जग गई पत्नी पर क्या गुज़रती है


जैसा कि उसे मैं जितना जानता हूँ हतप्रभ होती होगी


कहती होगी बड़े वैसे हैं ये


सुबह उठ कर पत्नी चाय बनाती है मेरी नींद के बारे में पूछती है


मैं अनसुना करता हूँ


और लगा रहता हूं युद्ध की तैयारी में एक औसत आदमी जैसा लड़ता है युद्ध


ब्रश, शेविंग, बूट पालिश, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ सब जल्दी में


इस बीच कभी भूल जाता हूँ फूल को पानी देना


किसी बच्चे को दो झापड़ मारता हूँ


पिता कहते हैं जैसे मुझे समझदार होना चाहिए मैं चिड़चिड़ा होता जा रहा हूँ


दफ़्तर जाकर काम निपटाता हूँ


इसको डाँटता हूँ उससे डाँट खाता हूँ


दफ़्तर में ढेर सारे गड्ढे इसमें गिरता हूँ, उसे फांदता हूँ


यहाँ डूबता हूँ वहाँ निकलता हूँ


कुर्सी तोड़ता हूँ कान खोदता हूँ


तीर मारता हूँ अपनी पीठ ठोकता हूँ


अख़बार पढ़ता हूँ देश में तरह तरह के फैसले हो रहे हैं


प्रधानमंत्री, फलां मंत्री इस देश जा रहे हैं उस देश जा रहे हैं


देश में यहाँ-वहाँ बम फूट रहे हैं


इसमें मुसलमानों के नाम आते हैं


और एक दिन कहीं किसी साध्वी के हाथ होने के सबूत भी मिलते हैं


तो तमाम राष्ट्रवादी उसकी संतई और विद्वता के किस्से बताने लगते हैं


उसे चुनाव लड़ाने लगते हैं


किसी प्रांत में कुछ लोग ईसाइयों की सफ़ाई में लग जाते हैं


हमारे दफ़्तर में इससे उत्तेजना फैलती है


इस आधार पर फाइलों को लेकर भी साजिशें होने लगती हैं


फिर कहा जाता है देश के कर्णधार ही सब पगले और भ्रष्ट हैं


तो हम जो कुछ कर रहे हैं कौन ग़लत कर रहे हैं


अलग-अलग गुट बन जाते हैं


और अपने गुट के कर्णधार को कुछ कहे जाने पर जैसे सबकी फटने लगती है


गुस्सा करने लगते हैं लोग ग़ाली-गलौज


प्रमोशन करने-कराने रोकने का यह एक आधार बन जाता है... बनने लगता है


हमने अपने-अपने घरों में मनोरंजन के लिए टी०वी० लगा रखा है


यह कम ज़िम्मेदार नहीं है हमारे द्रोहपूर्ण ज्ञान के विकास में


यहीं से हम नई-नई ग़ालियाँ, डिस्को, गुस्सा, प्यार करना और अवैध सम्बन्ध बनाना सीख आते हैं


और दफ़्तर में उसकी आजमाइश करना चाहते हैं


वहाँ एक से एक अच्छी चीज़ें हैं नचबलिए है,


लाफ़्टर शो हैं, टैलेंट हंट हैं, क्रिकेट मैच, बिग बॉस और एकता कपूर के धारावाहिक


पर मैं सोचता हूं इससे अपन का क्या


दफ़्तर न हो तो पैसा न मिले


पैसा न मिले तो केबल कट जाए


फिर ये साले रहें न रहें


भाड़ में जाए सब कुछ


गिरे शेयर बाजार लुढ़के रुपया


सुनते हैं गिरता है रुपया तो अपन की ग़रीबी बढ़ती है


बढ़ती होगी


अपन का क्या अपन कर ही क्या सकते हैं


बस सलामत रहे नौकरी


बॉस थोड़ा बदतमीज़ है


कलीग साले धूर्त हैं


कोई नहीं,कहाँ जाइयेगा सब जगह यही है


अपन ही कौन कम हैं


राजधानी में इधर बहुत बम विस्फ़ोट हो रहे हैं


क्या पता किसी दिन अपन भी किसी ट्रेन के इंतज़ार में ही निपट जाएँ


माँ रोज़ सचेत करती है


बेटा, ज़माना बहुत बुरा हो गया है


ख़ाक बुरा हो गया है


हो गया है तो हो गया है


अपन को कोई डर नहीं


मुझे तो दफ़्तर जाते न डर लगता है


न कोई उमंग न चिन्ता न ख़ुशी


यही है कि आने-जाने वाली ट्रेन लेट हो तो थोड़ी बेसब्री जगती है


सरकार पर थोड़ा गुस्सा आता है


बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर प्यार उमड़ आता है


वैसे वे कौनसी दूध की धुली हैं


आदमी तो सब जगह


एक से .

रविवार, 7 दिसंबर 2008

पत्रकार महोदय
'इतने मरे'
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।
अब सम्पादक
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय।
एक हाथ दोशाले से छिपाता
झबरीली गरदन के बाल
दूसरा रक्त-भरी चिलमची में
सधी हुई छ्प्प-छ्प।
जीवन किन्तु बाहर था
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !

वीरेन डंगवाल

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

जिद्दी रेडियो


पंकज मित्र
दूसरे लोगों के लिए जो आवाज सिर्फ एक ÷खट' की थी, स्वप्नमय बाबू के लिए इसी आवाज भर से यह बता देना आसान था कि यहां पर कैपिटल ÷एच' की जगह स्मॉल ÷एच' टाइप हो गया है और ऑनरेबल कोर्ट ऑफ फलां बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे कि ऑनरेबल का एच स्मॉल से लिखा जाए, हो तो यहां तक सकता है कि इसी गलती पर भन्ना कर बेचारे मुवक्किल की जमानत की अर्जी ही नामंजूर कर दें। इन स्थितियों से बचने के लिए विशेषज्ञता की जरूरत थी और यह विशेषज्ञता वैसे ही नहीं आ गयी थी, बरसों की मेहनत कहिये या तपस्या का फल थी कि कचहरी परिसर में नकलखाना के सामने लम्बे बरामदे पर बैठे सैकड़ों खट् खटा खट् खट् की आवाजों के बीच भी अपनी एक गलत खट् की आवाज को वैसे ही पहचान लेते थे जैसे शास्त्राीय संगीत का कोई पारखी सैकड़ों सुरों की भीड़ में एक गलत सुर को। सैकड़ों हजारों खटाखट की आवाजें जिसे वे ताल कचहरी कहते थे किसी बड़े आर्केस्ट्रा के सम्मिलित संगीत से भी ज्यादा मधुर लगती थीं उन्हें क्योंकि इसी पर टिका था उनके पूरे महीने का संगीत − आटा, चावल, दूध, चीनी, चाय, बच्चों की किचकिची फरमाइशें, फीस...खटाक्‌! विवादी स्वर से उनके सोचने की लय टूटी थी, जरूर चाय छलक कर गिरी होगी टेबल पर जिससे हाथ को बचाते हुए चाय का गिलास अंदाज से उठाना था उन्हें, नहीं तो कुर्ते की आस्तीन चाय में लिसड़ जाने का खतरा था और उन्हें बड़ा लिजलिजा लगता था यह अहसास। हल्की सी खुट् से जोर के खटाक्‌ तक की यह यात्रा कई वर्षों में पूरी हुई थी। चाय का गिलास कभी भी बेआवाज नहीं रख पाती थीं वे। शादी के कुछ दिनों के बाद ही जब इस बात पर ध्यान दिलाया था तो − ÷÷तो क्या हुआ? पोंछ देती हूं। एक दो बूंद ही तो छलकी है।''÷÷नहीं मतलब, क्लायंट्स के कागज पत्तर रहते हैं, चाय गिरी रहेगी तो खराब हो सकते हैं न।''मेज पर के कागज पत्तरों की संख्या जैसे जैसे कम होती गयी उसी अनुपात में यह आवाज खुट् से होकर खट्! और अब तो खटाक्‌! अब तो कागज पत्तर रहता नहीं एक भी। इसी खटाक! की आवाज के साथ ही रेडियो पर सुबह छः पांच का समाचार आने लगता था। सुबह का पहला गर्मागर्म समाचार, गर्मागर्म चाय के साथ − यही विलासिता थी स्वप्नमय बाबू की जो धीरे धीरे जिद में बदलती गयी थी। शुरू शुरू का टोकना भी कब बंद हो गया पता नहीं। जब स्वप्नमय बाबू ने अपने पिता की रोबदाब वाली कहानी पत्नी को सुनायी कि कैसे कप प्लेट बिना पोंछे टे्र में रखने पर कैसे नौकरों पर बरस पड़ते थे वे− ÷÷सी क्लास का रास्कल है सब! कुछ मैनर्स सीखा ही नहीं!'' पत्नी ने सिर्फ एक तिक्त निगाह डाली थी और कहा था− ÷÷हां हाथी चला गया, सिकड़ (जंजीर) रह गया।''उधर समाचारों में अफगानिस्तान पर कार्पेट बमबारी शुरू हो चुकी थी इधर भी− ÷÷कब से बोल रहा है बाबू कि चलिए दिखा देते हैं शंकर नेत्रालय में। अब नया नया चीज आ गया है। ठीक भी तो हो सकता है आंख, लेकिन नहीं... क्या जो मिलता है। अंधा सांप के तरह सम्पत्ति पकड़ के बैठे रहेंगे। जिन्दगी भर जान खाया अभी भी नहीं छोड़ेगा। बस एक रट नहीं जाना है। अरे ! बेटा है, दुश्मन थोड़े है लेकिन जान छोड़ दिया तो आदमी क्या...।''÷÷तुमको बेटा के साथ जाके घूमने फिरने का शौक है तो जाओ न, हम मना थोड़े किये हैं, गयी तो थी दार्जीलिंग लौट काहे आयी चार दिन में?''÷÷नहीं आते तो कौन देता रोटी बेल के, तीन जगह तो जला लिये हाथ, सूझता है नहीं। जिद कि अकेले रह लेंगे! जिनगी नरक कर दिया।''ए क्विक ब्राउन फॉक्स जम्प्स ओवर द लेजी डॉग− किसी जमाने में टाइपिंग इंस्टीच्ट्यूट में सिखाया गया यह जुमला याद आया उनको। इसी एक लाइन में ए से जेड तक पूरी वर्णमाला समा जाती थी। तब पता नहीं लेजी डॉग क्या करता होगा। क्याऊं क्याऊं करके चुप हो जाता होगा या मुकाबला करता होगा। उसका पाला अगर रोज क्विक ब्राउन फॉक्स से पड़े तो क्या संकल्पशक्ति बरकरार रख पायेगा वह। तभी रेडियो पर ÷आज का चिन्तन' आने लगा था − ÷संकल्प की शक्ति'− ÷मनुष्य के पास जो सबसे बड़ी शक्ति है वह है संकल्प, दृढ़संकल्प एवं अटूट आत्मविश्वास के साथ...' खट्, खट्, खटाक, खट्, खटाक, टिंग... पूरी सृष्टि को इसी संगीत से भर देने की इच्छा होती थी। बला की तेजी और अंगे्रजी का अच्छा ज्ञान− कामयाब टाइपिस्टों में शुमार था उनका − जज, मजिस्ट्रेट ने कितनी भी कठिन शब्दावली में आदेश क्यों न पारित किया हो। कौन? स्वप्नमय बाबू? वहां बैठते हैं, नकलखाना के बरामदा पर बायें से चौथे नम्बर पर। रेमिंग्टन की मशीन होगी। सामने के बाल थोड़े झड़ गये हैं... लम्बी नाक, पांच बजते ही उठ जायेंगे। कागजों को समेट कर फाइल में और टाइपमशीन को काठ के बक्से में डाल कर हरक्यूलिस साईकिल के कैरियर पर − खास तरीके का बनवाया है। प्लास्टिक के एक थैले में फाइलें ले जायेंगे घर पर कर लेंगे − सुबह मिल जायेगा आपको...सब्जी वगैरह खरीदते हुए चार किलोमीटर साइकिल चला कर पहुंच जायेंगे शहर के एकदम किनारे गंगातट पर बने पुश्तैनी पुराने मकान में...सब्जी के परिमाण एवं गुणवत्ता से ही आंक लेगी पत्नी आज की कमाई− ÷÷अभी कटहल तो महंगा मिला होगा। अरे! सहजन भी आ गया बाजार में।'' बच्चों की पढ़ाई वढ़ाई हो रही होगी कम धौलधप्पा ज्यादा − बिजली भी कहां रहती है? लालटेन में कितना आंख फोड़ेंगे। फिर तुलनात्मक रूप से तेज रोशनी वाली लालटेन तो उन्हें चाहिए − खट् खट् खटाक खुट खटाक टिंग... खेतीबारी का कार्यक्रम आ रहा है रेडियो पर − फली छेदक कीड़े का उपचार− ÷पौधों में फली लगते ही ये छेदक कीड़े उसमें छेद करने लगते हैं। पूरी जीवनीशक्ति ही चूस लेते हैं। इनके उपचार के लिए...'आज सी.जे.एम. साहब को उनका पेशकार डांट रहा था चेम्बर के पास बने रेस्टरूम में− ÷÷ऐसे कैसे चलेगा? बचवन का फीस, राशन सब्जी− मेरा नही आपका। कहां से बेवस्था होगा? सबका बेल रिजेक्ट कर दीजियेगा तो?'' जब्बर सी.जे.एम. के चेहरे पर फली छेदक कीट लग गया था। जैसे पत्तियां भंगुरा जाती हैं न उसी तरह। पिता जी बताते थे एक जमाना था जब सी.जे.एम. या ए.डी.जे. के सामने खड़े होने में बड़े बड़े पुलिस कप्तानों की घिग्घी बंध जाती थी। घिग्घी तो उनकी भी बंधी हुई थी पता नहीं क्यों सी.जे.एम. ने उन्हें तलब किया था। इंतजार में खड़े थे रेस्टरूम के सामने, तभी पेशकार तीता चेहरा बनाये निकला − ÷÷जाइये, साहब बुला रहें है क्या गड़बड़ किये हैं आर्डरशीट में?''− व्यंग्यपूर्ण मुस्कान!÷÷आप ही किये हैं टाइप?'' वह शेर की मांद में थे ऐन शेर के सामने और शेर का चेहरा बिल्कुल तना था। भंगुराहट गायब थी। फली छेदक कीट का उपचार हो चुका था।÷÷ज्जी''÷÷कितना दिन नौकरी है?''÷÷जी आठ साल।''÷÷वालंटरी रिटायरमेण्ट ले लीजिये।''÷÷ज्जी?''÷÷आप अंगे्रजी सिखायेंगे हमको? स्पेलिंग सुधारने की हिम्मत कैसे हुई?'' शेर की दहाड़..÷÷जी, वो ट्रेसपासिंग में डबल एस...''÷÷स्लिप ऑफ पेन नही होता है, इसका प्रचार करने की क्या जरूरत थी?''÷÷जी हमने नहीं...''÷÷ज्यादा होशियार मत बनिये, गेट आउट!'' शेर ने सिर्फ घायल करके छोड़ दिया था। वह भंगुराये चेहरे के साथ बाहर आये। टाइपिंग स्पीड साठ से चालीस हो गयी थी। उस रात विविध भारती के छायागीत कार्यक्रम में अहमद वसी ने गम शीर्षक से गीत बनाये थे−÷चले भी आओ कि बड़ी उदास है रात'। अहमद वसी की उदास मखमली आवाज और गमगीन करते गाने− उसकी पलकों से आंसू का एक कतरा फिसल कर गिरा जिसकी आवाज सुनी थी उन्होंने। वैसे भी जब आंखों की रोशनी धीरे धीरे कम होती जा रही हो तो अनसुनी आवाजें भी सुनाई देने लगती हैं।इट्स इलेवन फिफ्टीन− सिरहाने रखी टॉकिंग क्लॉक का बटन टटोल कर दबाते ही आवाज आयी। अपने कमरे में बिछावन पर बैठे बैठे जब बोर हो जाते हैं स्वप्नमय बाबू तो बातचीत होती है टॉकिंग क्लॉक से। रेडियो जब तक बजता रहता है तो समय का अंदाजा होता रहता है। लेकिन दस बजे दिन से बारह बजे तक बड़ी मुश्किल हो जाती थी। किसी आती जाती आहट को पकड़ कर दाग देते हैं सवाल− ÷÷कितना बजा है?'' अड़ोस पड़ोस का कोई बच्चा हुआ तो बता भी देता है और अगर वे हुईं तो साथ साथ कुछ सुभाषित भी− ÷÷हुंह! कोन ऑफिस जाना है? बैठे बैठे कितना बजा है? एक आदमी खड़ा रहेगा इनको बताने, ग्यारह बजा है।'' अब किसी आदमी का खड़ा रहना तो मुश्किल ही था और बीच में झपकी आ गयी तो समय की डोर हाथ से छूट कर ÷भक्काटा'। कब हो गयी ÷भक्काटा' पता ही नहीं चला। बाबू उस समय आठ नौ साल का रहा होगा। डोर पकड़ कर वह बचपन को जिन्दा कर रहे थे। गंगा के ऊपर उड़ती जा रही थी पतंग, तभी रामेश्वर बाबू के बेटे ने बगल वाली छत से कब पेंच लड़ा दी देख ही नहीं पाये। बाबू जब तक − खीचिये, खीचिये अरे, धत्‌ तेरी − भक्काटा हो गया न! रुआंसा हो गया था बाबू − ÷÷दिखा नही आपको?''− हां दिखा तो नहीं। − एकदम नहीं? न!! दूसरे ही दिन आंखों के डॉक्टर को दिखाते हुए आये और एक भयानक सत्य को दबाये हुए आये दिल में − ÷÷आपके खानदान में किसी को ग्लूकॉमा भी था?''÷÷हां! मां को था मेरी।''÷÷ओह!'' डॉक्टर ने सिर्फ अफसोस व्यक्त किया था। फिर तो आवाजों पर ही निर्भरता बढ़ती गयी थी उनकी। टाइप के अक्षर धुंधले होते जा रहे थे। फाइल पढ़ना तक मुश्किल होता जा रहा था। पत्नी ने कुछ दिन पढ़ने की कोशिश की, उकता कर छोड़ दिया− ÷÷सारा दिन खटो, खाना बनाओ, कपड़ा धोओ, बरतन बाशन, झाड़ू पोछा, फिर रात को आंख फोड़ो। हमसे नहीं होगा।''÷÷लाइये हम पढ़ दें।'' रामेश्वर बाबू का बड़ा बेटा कहता था। एक दीवार के आरपार आवाजें तो आवाजाही करती ही हैं बेरोकटोक। लड़का जहीन था। ठीक पढ़ता था, जहां नहीं पढ़ पाता था स्वप्नमय बाबू अंदाज से ठीक करवा देते थे − खट् खटा खट् खुट् टिंग... पर जैसे ही पौने नौ बजे न्यूजरीडर की आवाज गूंजी कि लगा देता था पूर्णविराम− ÷÷रुकिये काका! न्यूज सुन लें जरा।'' और खेलों का समाचार आते आते आवाज आ जाती थी दीवार के उस पार से− ÷÷मंटू आ जाओ!'' समाचार के सिग्नेचर ट्यून पर लहराते हुए मंटू बाबू अपने घर और उनकी उंगलियां टाइपराइटर के की बोर्ड पर ही रखी रह जातीं।खटाक्‌! थाली टेबल पर आ गिरती थी तब तक, हड़बड़ा कर फाइलें समेटते थे वे। कहीं पानी वानी छलक कर गिरा तो मुवक्किल दुर्गति कर देंगे− दुर्गति तो हो गयी थी तब तक− आज भी वही कद्दू की सब्जी और रोटी थी। लेकिन कुछ कहना मतलब − ÷÷नहीं तो कौन सा मीट मछली लाके धर दिये हैं जो पका दें। जो रहेगा वही न!''÷÷फिर भी, यही कद्दू का सब्जी वहां भाभी बनाती हैं तो...।''÷÷हां! तो जाइये न वहीं खा आइये। बेटा तो मार खा के आया ही है चप्पल से। आप भी जाइये, हुंह! भाई और भाभी।'' जहर उगलने के लिए किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं− सोचते हैं स्वप्नमय बाबू। फरमाइशी गानों के प्रोग्राम में ÷चुरा लिया है तुमने जो दिल को' गीत की फरमाइश थी और आशा भोंसले की चुलबुली आवाज कमरे में फुदक रही थी, पर स्वप्नमय बाबू तो आशा भोंसले की गायन प्रतिभा की मौलिकता की जगह बेटे की उस मौलिक प्रतिभा को याद कर रहे थे जब...÷÷रंजू! घड़ी कहां है मेरी?'' भैया कचहरी जाने के लिए तैयार थे।÷÷क्या पता! आप ही रखे होंगे कहीं।'' भाभी व्यस्त थीं।÷÷यहीं तो रखे थे, अच्छा खोजना, यहीं होगी कहीं।''÷÷बाबू कहां गया है?'' स्वप्नमय बाबू ने पूछा था पत्नी से।÷÷दोस्त लोग के साथ सिनेमा गया है।''÷÷यहां कौन दोस्त मिल गया इतना जल्दी, और पैसा? तुमने ...।''÷÷नहीं कह रहा था कि दोस्त लोग ही ले जा रहा है।'' दो घंटे के अंदर ही भैया वापस आये थे कॉलर से बाबू को पकड़े। उनका दंतकथा क्रोध प्रसिद्ध था। रास्ते से ही चप्पलों से पीटते ला रहे थे− ÷÷बोल! करेगा फिर? इसी उमर से...ओफ!''÷÷छोड़िये छोड़िये किया क्या है इसने।'' भाभी ने बीचबचाव किया। ÷÷क्या किया है? भोलवा पाकिटमार के साथ जाके घड़ी बेच आया है हिन्दुस्तान वॉच में। भोलवा दोस्त हो गया इसका। वो तो हिन्दुस्तान वॉच वाला घड़ी पहचानता था। भोलवा को सिपाही लोग का लात पड़ा तो गलगला के उगल दिया सब बात। अब शरम के मारे क्या बोलते हम− इ पापी! माथा नीचा कर दिया।''गुस्से की एक तेज लहर स्वप्नमय बाबू के दिमाग में भी उठी और चप्पल उठा कर दौड़े...÷÷छोड़िये न! बच्चा है, गलती हो गया मारिये दीजियेगा क्या?'' पत्नी ने प्रतिभाशाली पुत्र को छत्र छाया में ले लिया था साथ ही जहर की एक तेज पिचकारी − ÷÷घर का बड़ा लोग से ही सीखा है।'' दूसरे कमरे से अदृश्य दिशा में छोड़ी गयी पिचकारी खदबदा कर भैया भाभी के कानों में भी पड़ी।÷÷क्या बोल रही हो, होश है कुछ?''÷÷हां! खूब है, क्या गलत बोले?''भाभी के जोर से रोने की आवाज आयी तो स्वप्नमय बाबू ने उछल कर ढूंढ कर (शाम हो रही थी और कम दिख रहा था उन्हें) गला पकड़ लिया पत्नी का − ÷÷साली! टेंटुए दबा देंगे। अंटशंट बोले जा रही है।''शायद यही एकमात्र अवसर था जब लेजी डॉग ने पौरुष प्रदर्शन करते हुए क्विक ब्राउन फॉक्स को दबोच लिया था। भाभी ने रोते हुए आकर छुड़ाया था और कहा था...÷÷हम लोग का समय ही खराब चल रहा है तो सुनना ही पड़ेगा। समय खराब होने से तो हाथी के उपर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है। सबको पढ़ा लिखा के आदमी बना दिये तो कमा खा रहा है सब। किसी से मांगने गये कुछ?''÷समय खराब' का निहितार्थ था भैया का सस्पेंशन जो उन पर लादा गया था दंतकथा क्रोध के कारण झूठे गबन का मामला बना कर। सुबह ही सपरिवार प्रस्थान कर गये स्वप्नमय बाबू।कितने खुश होकर बेटे के जनम की खुशी की मिठाई खिलायी थी घोष दा को... घोष दा ने कहा था अपने इसी अंदाज में − ÷÷अरे वाहवा बाजी मात कर दिया स्वपन! यही दो ठो मेशीन तो पूरा हिन्दुस्तान में फस्सकिलास काम कर रहा है − एक रेमिंग्टन का टाइपराइटर और दूसरा इ बच्चा पैदा करने का मेशीन।'' फिर लीला भाभी को आवाज दी− ÷÷ओगो शुन छो! स्वपनेर छेले होय छे। वंशेर उद्धारक एसेछे। गोरोम गोरोम चा करो।'' (सुनती हो, स्वप्न के लड़का हुआ है, वंश का उद्धारक आया है, गरमागरम चाय बनाओ तो)। हरदम चाय पीने का कोई नया बहाना चाहिए होता था घोष दा को। घोषबाड़ी की प्रतिष्ठा थी मुहल्ले में एक जमाने में लेकिन अब... वही पत्नी जिसे कहती है न अपने अंदाज में− हाथी चला गया था सिकड़ (जंजीर) रह गया था। पर घोष दा अलमस्त जीव, वही जंजीर बजाते घूमते थे मस्ती में। हाथों में हुनर था। चुटकी बजाते ही रेडियो, घड़ी, बिजली का सामान सब ठीक... और टाइपराइटर के तो विशेषज्ञ ही थे। शहर के दूसरे छोर से भी लोग लादे पहुंचते − मोहल्ले के बच्चों के प्रिय घोष काकू जब तब रेलगाड़ी का इंजन बन बच्चों की कतार बनाये अशोक कुमार के प्रसिद्ध ÷रेलगाड़ी छुक छुक' गाते हुए बगान में घूमते। लीला भाभी हंस कर कहती − ÷बूड़ोर भीमरति होयेछे' (बूढे+ का दिमाग फिर गया है)। रेलगाड़ी में हरदम बाबू गार्ड बनने की जिद करता क्योंकि सीटी बजाने को मिलती थी और घोष दा हो हो करके हंसते हुए उसे गार्ड नियुक्त कर लेते। स्वपन बाबू को तो पहले से ही रेडियो सखा बना रखा था− कि हे रेडियो सखा! काल सुना सचिन देव बर्मन का गाना, सचिन दा का जवाब नहीं, बोलो?÷÷घोष दा! बड़ी चिन्ता में हूं।''÷÷क्यों, क्या हुआ?'' घोष दा गुनगुनाते हुए ट्रांजिस्टर की मरम्मत कर रहे थे।÷÷बाबू फिर फेल हो गया मैथ्स और इंगलिश में।''÷÷अरे हम तो केतना बार बोला हमारा पास भेजो हम पढ़ायेगा उसको। कार्तिक घोष का पढ़ाया लड़का कभी फेल नहीं होता। टेन उद्धार कर लेगा।'' कर भी लिया उद्धार उसने। खटाक्‌ की आवाज के साथ पंडित भीमसेन जोशी की सात पुश्तों का उद्धार कर दिया पत्नी ने − ÷÷रात में भी आदमी जरा चैन से सोयेगा सो नहीं। पें... पें...। बाबू ले जा रेडियो अपना रूम में....'' बाबू जो पढ़ाई के मूकाभिनय में व्यस्त था अब संगीत के बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ पढ़ने का अभिनय करने लगा फलां ÷एफ.एम. हिल्ला के रख दे' के साथ...और जब बी.ए. में एक दो असफल प्रयासों के बाद अंतिम रूप से घोषणा कर दी बाबू ने कि पढ़ाई वढ़ाई से साला कुछ नहीं होता, असल बात है पैसा कमाना − बालीवुडीय शब्दावली में कहा था−÷रोकड़ा होना मांगता समझा क्या?' तो उसकी मां ने एकदम समझा और इस बात की जोरदार शब्दों में वकालत भी की− ÷÷पढ़ लिख के दो चार हजार रुपल्ली के नौकरी से क्या होगा। ठीक ही तो कह रहा है बाबू, आखिर बाबू के बाप ने जिन्दगी में खटाखट की नौकरी कर पाया क्या? कौन सा कद्दू में तीर मार लिया। दोस्तों के साथ पार्टनरशिप में बिजनेस में उतर रहा है तो क्या बुरा है? कल को छोटू कहीं इंजीनियरिंग में कम्पीट कर गया तो औकात है ÷खटाखट बाबू' की उसको पढ़ाने की?'' ऐसे ही पलों में स्वप्नमय बाबू इतना अकेलापन महसूस करने लगते कि बतियाने लगते थे रेडियो से और टॉकिंग क्लॉक से−÷÷इट्स इलेवन पी.एम., ठीक तो कहती है मैडम।''÷÷तुम भी!''÷÷हां तो, तुम्हारी जो तनख्वाह है उसमें तो मेरी मरम्मत तक नहीं करवा पाते हो। घोष दा के पास पहुंच जाते हो फ्रीफंड का...''÷÷पहले तो टाइप करके कुछ एक्स्ट्रा भी... अब तो बत्ती भी गुल हो रही है तो करो बत्ती गुल और सो जाओ।''÷÷अरे अंधे को बत्ती गुल करने को कहती हो मूर्ख घड़ी।''÷÷शटअप! इट्स ट्वेल्व।''इसी बीच बाबू के कमरे से तेज आवाज में टी.वी. चलने की आवाज आने लगती है−÷इट्स टाइम टू डिस्को'। पत्नी ने बताया था कल मुहल्ले में − सबसे बड़ा है और सबसे रंगीन। पहली कमाई से खरीदा है बाबू ने − ÷÷पूरे बीस हजार का है। जिन्दगी में कभी खरीद पाते तुम। जब आंख थोड़ी ठीक भी थी तो रामायण के समय पहुंच जाते थे घोष बाबू के घर। अब तो खैर... जा रही हूं पकौड़ी तलने बाबू के बिजनेस पार्टनर लोग आये हैं...''हुंह! बिजनेस पार्टनर!− पार्टनर लोगों की आवाजें लहक लहक कर उनके कुढ़ते कानों तक पहुंच रही थीं। ÷÷क्या आंटी! इतना टैलेण्ट है आप में, हम लोग तो जानते ही नहीं थे।''÷÷कितना बढ़िया कामेडी कर लेती हैं।''आंटी फूल फूल जा रही थीं। किसी कॉमेडी शो की फूहड़ नकल से बेटे के बिजनेस पार्टनर्स को हंसा रही थीं और पहली बार उनके इस रूप के श्रवण किये थे उन्होंने क्योंकि दर्शन तो सम्भव नहीं था उनके लिए...÷÷अरे, तो पुराने जमाने की मैट्रिक है मम्मी। जब मोहल्ले टोले में एकाध आदमी ही मैट्रिक पास करता था। वो तो ऐसी जगह शादी हो गयी कि...'' यह मम्मी की प्रतिभा पर मुग्ध बाबू था − ÷÷तो रात में मीटिंग है न? मिलते है वहीं।'' पता नहीं कौन सा बिजनेस था कि हमेशा रात में ही मीटिंग रहती थी.... चार पांच बाइक्स के कोरस ने चौंकाया था−÷÷और कल ही तो करना है न सामाजिक काम।'' बाबू के इस जुमले पर सबने ठहाका लगाया था जोर का।÷÷तुम्हारा लेड़का तो सामाजिक टाइप का है स्वपन। अब हमारा चिन्ता नहीं है।'' घोष दा की कुछ दिनों पहले की बात... उनकी अकल्पनीय चिन्ता थी कि जब वह नहीं होंगे तो आसपास के मोहल्ले में जब किसी की मृत्यु होगी तो मृतक की सद्गति.... हंसते हुए कहते थे घोष दा− ÷÷इस फील्ड का सचिन तो हम ही है।''लड़के पूछते−÷÷कितना हो गया काकू स्कोर?''÷÷बाढ़ो साब का मिलाके फोर हंड्रेड नाइंटी फाइव। पांच होने से ही फाइव सेंचुरी।''.... और ये डाबर चौका.... सचिन के बल्ले से निकली गेंद गोली की रफ्तार से बाउंडरी लाइन के बाहर जा रही है। किसी फील्डर के लिये हिलने तक का मौका नहीं और ये चार रन.... इसके साथ ही भारत का स्कोर हो गया.... रेडियो का नॉब घुमाते हुए क्रिकेट की कमेण्ट्री आ रही थी....।किसी भी मृत्यु की सूचना सिर्फ मिल जानी चाहिए घोष दा को। सबसे पहले पहुंच कर कमान थाम लेंगे। घी, पंचकाठ, तिल, लावा.... सामानों की कंठस्थ लिस्ट.... अर्थी अपनी देखरेख में बनवाते घोष दा, हाथ से नाप कर कफन का कपड़ा फाड़ते घोष दा, लकड़ियां सजाते घोष दा, श्मशान के शिबू डोम से मोलभाव करते घोष दा− ÷÷हमारा अपना आदमी था शिबू । बस रख लो। दुख में है आदमी।''शिबू झुंझलाता− ÷÷सब तो आपका अपना ही है घोष बाबू, हमारा भी तो यही कमाई है न।'' लाल आंखों वाला शिबू लुकाठी सुलगा देता था। क्या मजाल कि बिना पूरी तरह फूंके, पानी में दहाये चलें घोष दा− कितनी भी ठंड हो, कितनी भी रात हो जाए गंगा में दो डुबकी लगा कर ही लौटेंगे− लीला भाभी तब तक गरमागरम चाय की कई प्यालियां हाजिर रखेंगी− पहुंचते ही चाहिए होगा उनको।÷÷सीख लो बाबू, सीख लो हमारा रहते। सामाजिक काम है। बहुत पुण्यात्मा लोग को सौभाग्य मिलता है अंतिम समय का साथी बनने का।'' बाबू को एकाध बार उन कार्यों में रुचि लेते देख प्रसन्न थे घोष दा...प्रसन्न थीं पत्नी− घर में सामानों की तादाद बढ़ती देख कर− टी.वी. का गुणगान तो कर ही चुकीं− फ्रिज भी आ चुका था और यह स्वप्नमय बाबू को उससे टकराने पर मालूम हुआ। दरअसल पानी सिरहाने रख दिया जाता था। अब था नहीं तो उठ कर खोजने लगे और धड़ाम से टकरा गये फ्रिज से। पत्नी दूसरे कमरे से आयीं और विषाक्त स्वर में बोलीं कि इतना बड़ा फ्रिज रखा है जरा खोल कर निकाल नहीं सकते थे पानी की बोतल। उनके यह भुनभुनाने पर कि फ्रिज का पानी उनका गला खराब कर देगाा। मजाक उड़ाया गया कि कौन सा इंडियन ऑइडल बनना है उन्हें और सलाह भी दी गयी कि बाबू के पार्टनर लोगों के सामने ऐसी देहाती भुच्च की बात न कह दें।घोष दा के फ्रिज का ठंडा पानी गटागट पीते हुए जब ये वाकया उन्हें सुनाया तो बोले− ÷÷तुम भी अजब जिद्दी हो। अरे! बेटा नया फ्रिज लाया है तो पियो पानी। फ्रिज का पानी कैसे पी रहा है यहां।''÷÷नहीं घोष दा, कुछ ठीक नहीं लग रहा।''÷÷अरे बाबा, तुम्हारा लेड़का उन्नति कर रहा है तो तुमको तो खुशी होना चाहिए। सिरिफ नजर रखेगा कि कुछ उल्टा सीधा काम तो नहीं कर रहा है।''स्वप्नमय बाबू ने खुद को व्यंग्य से मुस्कराते महसूस किया। करीब करीब अंधे हो चुके आदमी को नजर रखने को कह रहे थे घोष दा।रात को बात करनी चाही पत्नी से−÷÷सुनती हो।''÷÷हां! सुनिये तो रहे हैं इतना दिन से।''÷÷बाबू क्या बिजनेस करता है पूछी हो कभी?''÷÷पूछना का है? नजर नहीं आ रहा। आपके तरह थोड़े हैं हम। बैंकवाला लोग रखा है रिकवरी एजेण्ट कि क्या कहता है। ''÷÷काम क्या करना पड़ता है?''÷÷लोन उन लेके जो वापस नहीं करता उससे वापस करवाने का काम है।''÷÷तनख्वाह?''÷÷सब चीज करिये रहा है तो तनखा का पूछें। चुपचाप सुत रहिये। एतना दिन के बाद तो नजर फेरा है भगवान। आपके फेरा में तो जिनगी नरक हो गया था। बाबू बोलता है छोटुआ के पढ़ाई वढ़ाई का चिन्ता नहीं है। इंजीनियरिंग में का कम पैसा लगता है बंगलोर में? करा देगा एडमीशन बोलता है। सुतिये अब। रातों में तो चैन दीजिये। एतना दिन बाद तो रात को नींद आता है ठीक से....। आर ई अपना पिनपिनिया रेडियो बंद कीजिये अब।''दोपहर में भी इसका एक्सटेंशन चला− ÷÷इ देखिए जी, इतना मोटा सिकड़ बना के लाया है सोना का। हम बोले कि अब इ उमर में सोना हम का पहनेंगे जिनगी भर तो दुःख काट लिये, अब तुम्हारी वाइफ आयेगी तो पहनेगी। लेकिन वाह रे बेटा! कहता है जो भी अरमान बचा है पूरा कर लो। पैसा का फिकिर मत करो। घर में भी हाथ लगायेगा अब। टाइल्स लगा के झकाझक करेगा। पुराना तोड़तोड़ के− हां जी मिठाई कौन पूछता है, भोज खिलायेंगे भोज! गृहप्रवेश का। हां जी! तो घर तो नये न होगा।'' इस बार तो पड़ोस की महिलाओं को दी गयी ये गर्वमिश्रित सूचनाएं अपने कमरे में धीमी आवाज में रेडियो सुन रहे उनींदे स्वप्नमय बाबू तक भी पहुंच रही थीं। उन्हें लगा टाकिंग क्लॉक हंसी थी− इट्स थ्री पी.एम.। ठीक से चलना चिकने फर्श पर टाइल्सवाला। अभी तो पुराना घर में अंदाज हो गया है चलने का। रेडियो ने भी सुर मिलाया − ÷चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना' − फरमाइशी गीत के कार्यक्रम का आखिरी गीत बज रहा था। खटाक्‌! की आवाज के साथ चाय का प्याला आ चुका था। साथ ही कई बाइक्स भी रुके थे घर्र घर्र... टीं टीं पीं पीं की ध्वनियों से गुंजायमान हो चुका था मोहल्ला। पत्नी की खुशी भरी व्यस्तता छलक छलक पड़ने लगी.... बीच बीच में बाबू उसे बाइक पर पीछे बिठा कर बाजार ले जाता था छोटीमोटी खरीदारी करने। बहुत ही उत्साहित रहती थी तब वह। फुर्र फुर्र हवा में उड़ रही हो जैसे एक रंगीन चिड़िया की तरह− शायद हल्का मेकअप वगैरह भी करती हो भला क्या पता... घर्र घर्र करते हुए बाइक पर बैठने के पहले प्रस्ताव को ही ठुकरा दिया था स्वप्नमय बाबू ने, जब हर पहली तारीख को पेंशन का थोड़ा सा रुपया निकालने वह बैंक जाया करते थे, पूरे समारोहपूर्वक। पहले रामेश्वर बाबू के बेटे की खोज करते फिर मोहल्ले के रिक्शेवाले जागेसर की। फिर चलती थी सवारी तकरीबन चार किलोमीटर की यात्रा पर। पत्नी ने प्रस्ताव रखा−÷÷कहां इतना झमेला करते हैं। बाबू के साथ बाइक पर चले जाइये। दस मिनट में काम हो जाएगा।'' ठोस से ÷नहीं' के बाद − ÷÷हां! पूरा मोहल्ला जब तक जानेगा नहीं कि खटाखट बाबू आज पेंशन का कुछ हजार रुपल्ली उठाने जा रहे हैं। तब तक...'' उनकी तबियत होती कि कहें− ÷इसी कुछ रुपल्ली पर जिन्दा थे अब तक' लेकिन फिर ÷ए क्विक ब्राउन फॉक्स'...घोष दा ने भी कहा था− ÷÷बेकार का जिद है तुम्हारा, बाइक पर घर्र से चले जाओ।''कुमार गंधर्व की आवाज रह रह कर पछाड़ खा रही थी। ऐंठ ऐंठ कर लपक लपक कर बढ़+ती फिर पछाड़ खाकर गिर जाती थी− ÷साधो देखो जग बैराना'।÷÷एकदम पागोल हो गया तुम। हजारों हजार कमा रहा है तुम्हारा लेड़का? सब छोड़के इ पुराना जमाना का रेडियो, टाइपराइटर मरम्मत का काम सीखके क्या करेगा? अरे, अब तो मोबाइल, कम्प्यूटर का जमाना है।'' घोष दा भड़क उठे थे। फिर मुलायमियत से बोले − ÷÷जानता है स्वपन हम खुद ही कुछ दिन से सीरियसली सोच रहा है, लोन लेके दो तीन कम्प्यूटर खरीदेगा। आर मोहल्ला का लेड़का लोग को सिखायेगा। अरे, फ्री में नहीं, नॉमिनल फीस पर। हां एकदम जो गरीब है उसका....''लीला भाभी तब तक कूद गयीं− ÷÷सबका ठेका ले लिया है तुम्हारा घोष दा। रात रात भर सोता नहीं टेंशन में रहता है। बोलता है लेड़का लोग नष्ट हो रहा है। सबको लाइन पर लाना है। जब से गंगापुल बना तब से मोहल्ला खाराप हो गिया।'' ÷÷ओह लीला!'' घोष दा ने रोका − लीला भाभी रुकने वालों में नहीं थी− ÷÷एक महीना से जिद, लोन लेके कम्प्यूटर खरीदेगा। इंस्टीट्यूट खोलेगा। हम बोला काहे झूठ झामेला करता है। लोन चुकेगा कैसे। अभी से तो बैंकवाला दौड़ा दौड़ा के परेशान कर दिया। कौन कौन छोकरा लोग आता है कभी इ कागज कभी उ कागज, क्या जरूरत है आराम से रहो ना बाबू। एक बार माइल्ड अटैक हो चुका है। क्या गलत बोला, बोलो?''स्वप्नमय बाबू भला क्या बोलते? बोले घोष दा ही हंसते हुए − ÷÷उ सब बात नहीं है, बैंक वाला तैयार है, बोला कुछ मोर्टगेज करना होगा। हम बोला− मोर्टगेज के लिए घर ठो है तो, इसी से तुम्हारा भाभी ज्यादा परेशान है। बोलता है घोषबाड़ी का इज्जत चला जाएगा। बोलो तुम आदमी का इज्जत होता है कि घर का− हो हो बूझे ना लीला किछुई....'' (नहीं समझती है लीला कुछ भी)लीला भाभी ने तो तब बूझा जब चुपके से घोष दा कम्प्यूटर के विशेषज्ञ हो गये, लोन लेकर कई कम्प्यूटर भी ले आये और मोहल्ले वालों ने तब जाना जब ÷घोषबाड़ि' की पुरानी इबारत पर झकाझक साइनबोर्ड लग गया− लीला कम्प्यूटर सेण्टर। घोष दा ने कॉलर उंचा कर पत्नी की तरफ देखते हुए पूछा था− ÷÷बोलो तो लीला, केमन लागछे?'' (कैसा लग रहा है) हेमंत कुमार के बंगला गाने की एक धुन गुनगुनाते हुए उनकी तरफ रोमांटिक नजरों से देखने भी लगे थे।÷÷दुत्‌! बूड़ो वयसे भीमरति (बुढ़ापे में मति मारी गयी है)।'' लीला भाभी ने कहा था और रेडियो की टाइमिंग देखिये कि इसी रात विविध भारती ने हेमंत कुमार का वह गीत भी बजाया− ÷जरा नजरों से कह दो जी निशाना चूक ना जाए'।पर चूक गया था घोष दा का निशाना। कहां कहां से कम्प्यूटर सीखने वाले छात्रों को पकड़ पकड़ के लाते। अच्छी तरह सिखाते भी, सस्ते के चक्कर में कुछ आये भी पर घोष दा नीट, एप्टेक थोड़े ही हो जाते। धीरे धीरे शिबू डोम का बेटा, मुसहर टोली, भुइयांटोली के लड़के रह गये और घोष दा तो किसी के चाचा, किसी के दादा ठहरे। तीसरे ही महीने से इएमआई का दैत्य घोष दा के पीछे पड़ गया। घोष दा भागते जाते पसीने पसीने होकर हांफते हांफते, इएमआई का दैत्य पीछे पीछे। साथ में बाइक्स का हॉरर म्यूजिक। घोष दा रेडियो भी लगाते तो उसमें घर्र घर्र सुनाई पड़ता। कई दिनों के बाद स्वप्नमय बाबू जब एक शाम घोष दा के घर पहुंचे किसी बच्चे का हाथ पकड़े जैसा कि तकरीबन हर शाम को करते थे वे− तो घोष दा सिर मुंह लपेटे लेटे हैं। लीला भाभी ने बताया− ÷÷दो रोज से बुखार है। हम बोला था इ सब झूट झमेला नहीं करने लेकिन आप लोग तो सब जिद्दी का दल।'' कहते हुए अंदर चली गयीं शायद चाय लाने। घोष दा ने हाथ पकड़ा था स्वप्नमय बाबू का− पसीने से भींगा था हाथ− फुसफुसाहट भरी आवाज में कहा− ÷÷रास्ता में बैंक का रिकवरी एजेण्ट लोग बहुत बेइज्जत किया। बोला है घर में भी आयेगा। अभी हम टाइम मांगा है थोड़ा। कुछ इस्टालमेण्ट दिया था, फिर... अंधेरा में बाइक में बगल से गुजरता है− बोलता जाता है− ÷इएमआई दे देना बुढ़ऊ।' चेहरा पहचान नहीं पाया नहीं तो कॉम्प्लेन करता।'' फिर गहरी सांस ली घोष दा ने। निराश स्वर में बोले− ÷÷किसका काम्प्लेन भी करेगा। एक दिन पेशाब करने बैठा तो पीछे में दो छोकरा बाइक रोक के खड़ा है। शाम को.... फिर देखा नहीं.... छोड़ो....''÷÷नहीं, क्या हुआ घोष दा?''घोष दा के हाथ थरथरा रहे थे। कांपती उत्तेजित मगर मद्धिम आवाज में बोले−÷÷सब नष्ट कर देगा। सब नष्ट हो जाएगा।'' डरी आवाज जैसे कुएं के अंदर से आ रही हो− ÷÷किसी से चर्चा मत करना, हो सकता है मेरा वहम भी हो। कुछ बाइकवाला लोग घेरा था हमको, बोला− क्या आलतू फालतू बात का प्रचार करता है। अपना काम कीजिये चुपचाप। बाइक पर पुलिस का वर्दी में गंगापुल के पार लड़का लोग रोड होल्डिंग करता है। ट्रक लूटता है इ सब फालतू बात काहे करते हैं। क्या मतलब है आपका.... सब मफलर से चेहरा ढंका था लेकिन आवाज से लगा बाबू भी था उसमें− तुम्हारा लेड़का।'' फिर अस्फुट स्वर में बोले− ÷÷सब नष्ट हो गया, स्वप्न सब नष्ट.... ÷÷आवाज भीगी हुई थी और हाथों में आतंक की कंपकपी....''लीला भाभी आ गयी थीं और वे चुप हो गये थे और दूसरी रात को पूरी तरह ही चुप हो गये− डॉक्टर ने बताया− ÷मैसिव हार्ट अटैक' और मोहल्ले के आंकड़ेबाजों ने कहा कि घोष दा नर्वस नाइंटीज के शिकार हो गये, क्योंकि रघू की दादी, त्रिावेणी का बाप और सीताराम की मां को लेके चार सौ अट्ठानवे तो हो गया था स्कोर लेकिन चार सौ निन्यानवे में खुद ही....लीला भाभी ने बताया कि कुछ लड़के जीप पर बैठ कर आये और गालीगलौज, धक्का मुक्की भी शायद करके सारा कम्प्यूटर वगैरह उठा कर ले गये। बैंक की जबान में रिकवरी... ÷नहीं− बाबू नहीं था उसमें'.... क्योंकि बाबू तो गृहप्रवेश की पार्टी में व्यस्त था उस रात− पुराने मकान को नया करवा के नये सिरे से गृहप्रवेश। पत्नी के तो पांव ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। पड़ते भी तो कैसे, ऐसा चिकना टाइल्स ही था कि पांव बिछल बिछल जा रहा था− फ्राईड राइस, कचौड़ी, पनीर बटर मसाला, − नहीं गृहप्रवेश में नॉनवेज नहीं चलता है न − अंत में आइसक्रीम थी... मतलब दहापेल...।कंठ सूख रहा था स्वप्नमय बाबू का। आज पानी रखना भूल गयी थीं शायद। सौ काम होते हैं गृहप्रवेश में, कोई मामूली फंक्शन थोड़े ही था, कानों में कुछ चर्चा भी पड़ी− ÷÷भोज तो लाजवाब था लेकिन गृहप्रवेश के कार्ड में सिर्फ मां बेटे का ही नाम था, क्या कीजियेगा खैर...''पानी पीने उठे स्वप्नमय बाबू ... दो तीन कदम ही चले होंगे कि रपट गये एकदम चिकने फर्श पर− धड़ाम।÷÷क्या हुआ?'' थकी उनींदी आवाज आयी पत्नी की दूसरे कमरे से।बाबू दौड़ा आया। जीभ एक तरफ लटक गयी थी, सिर टकरा गया था फ्रिज से।÷÷मम्मी दौड़ो, देखो क्या हो गया पप्पा को।''मुंह के एक कोर से लार बह रही थी और आंखों से आंसू।−÷÷हां हां तुरंत चले आओ। गाड़ी ले आना। क्या घोष काकू के यहां क्यों− क्या हार्ट अटैक -- अच्छा जल्दी आओ पापा का एक्सीडेण्ट हो गया है। लगता है हैमरेज हुआ है− फिसल गये थे यार− जल्दी करो।'' बाबू मोबाइल पर व्यस्त था। वह मना करना चाहते थे लेकिन एक गुंगुवाहट और अशक्त हो चुके दांये हाथ की हल्की सी जुम्बिश के अलावे कुछ नहीं कर पाये। गाड़ी नर्सिंग होम की तरफ दौड़ पड़ी थी.... मोबाइल की घंटी बजी।बाबू − ÷÷क्या आदमी नहीं जुट रहा है? अच्छा! उधर का लड़का लोग को फोन कर देते हैं, घोष काकू के यहां पहुंच जाएगा सब। हम तो....''घबराहट में किसी ने गाड़ी का रेडियो चला दिया था। रेडियो में भी अब उतनी जिद नहीं बची थी शायद नहीं तो रात के बारह बजे, भला कोई समय है राग यमन कल्याण बजाने का....

गुरुवार, 26 जून 2008

डर

मेरे पड़ोस मे गिलहरी आती है
मेरे घर मे भी गिलहरी आती है
मेरे पड़ोस मे गौरैया भी आती है
मेरे घर मे भी गौरैया आती है

मेरे पड़ोस मे कई तरह के भय आते हैं
मेरे पड़ोस मे कई तरह के अपराध होते हैं

मगर फिर भी मेरे पड़ोस मे
गौरैया और गिलहरी दोनों आते हैं

कभी कभी मेरे घर पर भी!

मित्रों, मैं अब क्या करूँ
मुझे अब गौरैया और गिलहरी
दोनों से डर लगने लगा है!!

शशि भूषण द्विवेदी

रविवार, 23 सितंबर 2007

वन हण्ड्रेड इयर्स ऑफ सालीटयूड और मार्खेज़

मार्खेज़ का प्लीनीयो मेन्दोज़ा द्वारा लिया गया साक्षात्कार पढ़ा, गद्य के जादू को अगर महसूस करना है तो इस उपन्यास को पढ़ें, यह एक ऐसा उपन्यास है जो वृहत होने के बावजूद आपको एक भी पृष्ठ छोड़ने की स्वतंत्रता नहीं देता। पहले-पहल जब जादुई यथार्थवाद के बारे में सुना या पढ़ा था तो इस फ्रेज़ के इस्तेमाल पर खुद को पर चकराने से नहीं रोक सका था, पर उपन्यास पढ़ने के बाद समझ में आया कि वाकई ऐसा भी कुछ सम्भव है। एक साथ अथाह और उदात्त सौन्दर्य के साथ महान वीभत्सता और क्रूरता इस आख्यान में ही सम्भव है। मेल्कीयादेस और अन्य बंजारों के चमत्कारों से लेकर फर्नान्दा का धार्मिक आचरण जो सिर्फ सोने की राजचिह्न वाली चिलमची में शौच करती है, यह सभी कुछ अकल्पनीय है, लेकिन फिर भी मार्खेज़ उसे इतिहास की तरह लिखते हैं और मजबूर करते हैं कि उस पर विश्वास किया जाए। मार्खेज़ ने साक्षात्कार में कहा है कि ''मैं मज़े के लिए लिखने के जाल में फँसा और उसके बाद असल में जहाँ मैंने पाया कि दुनिया में लिखने से अधिक प्रिय मुझे कुछ नहीं था।'' यह बात बड़ी महत्तवपूर्ण है कि एक लेखक जो मज़े के लिए लिखना शुरू करता है उसकी कृति एक बड़े और विस्तृत औपनिवेशिक इतिहास और सांस्कृतिक विमर्श के फलक तक पहुँचती है। मैंने पढ़ते समय यह हमेशा महसूस किया है कि एक ऐसी कृति जो आपको अपने साथ अपने संसार, अपने समय में साथ ले जाती है, वह अनूठी होती है। गाबो (मार्खेज़ का दूसरा नाम) को पढ़ते हुए आपको ऐसा लगेगा कि आप माकोन्दो में ही रह रहे हैं। ओरैलियानो बुएनदीया के उधमी (और उद्यमी भी) परिवार वाले और स्वेटर बुनती हुई उर्सुला का प्रतीक ऐसा चुम्बकीय है कि उपन्यास खत्म होने के बाद माकोन्दो छोड़ते हुए दुख सा होता है। अलग होते हुए भी उपन्यास का संसार इतना यथार्थ बुनता है कि रूपवती रेमेदियोस के स्वर्गारोहण का जादू भी असत्य नहीं लगता। सिर्फ वक्त काटने के लिए कर्नल औरेलियानो का सुनहरी मछलियाँ बनाना और बाद में उन्हें गला देना, ये कुछ ऐसे विवरण हैं, जो आपको फंतासी के करीब लगेंगे लेकिन विश्वास मानिये मार्खेज़ को फंतासी से वितृष्णा है, वे कहते हैं, ''सादा फंतासी जिसका कोई वास्तविक आधार नहीं होता, मुझे बेहद नापसंद है ..... कल्पना और फंतासी के बीच वहीं अंतर है जो एक मनुष्य और वेन्ट्रिलोकिट के पुतले में होता है।''
उपन्यास की विशेषताओं के अतिरिक्त कुछ ख़ास बातें मार्खेज़ की निजी लेखन शैली के बारे में भी बड़ी रोचक हैं, जैसे इस उपन्यास के बारे में सोचने में उन्हें पन्द्रह साल लगे और अन्त में लगभग दो सालों में उन्होंने इसे लिखा। उनके अनुसार अगर कोई विचार पन्द्रह साल से तीस साल तक टिका रह सकता है तो उसे लिखने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं। मार्खेज कहते हैं कि उन्हें सुबह रेगिस्तान के द्वीप की चाहिए और रात एक बड़े शहर की जहाँ कुछ अच्छी ड्रिंक्स और दोस्त मिल सकें। लिखते समय वे आश्चर्यजनक रूप से बहुत सारे पन्ने फाड़ते हैं और उन्हें लगता है कि टाइप करते समय उनसे हुई गलती रचनात्मक निर्णय की गलती के बराबर होती है। मार्खेज़ के अनुसार वे बहुत किस्मत वाले हुए तो पूरे दिन में एक पैराग्राफ लिख पाते हैं। मजेदार बात यह कि मार्खेज़ कभी कभी लिखते हुए अचानक लिखने की अवस्था से बाहर आ जाते हैं और ऐसे समय में वे पेंचकस लेकर घर भर के ताले और प्लग ठीक करने लगते हैं या दरवाज़ों पर हरा रंग करते हैं। वस्तुत: यह खुद को री-सेट करने जैसी प्रक्रिया होती है।
यूँ तो यह उपन्यास और मार्खेज़ से जुड़ी हर बात रोचक और मज़ेदार है, लेकिन मेरी संस्तुति यह है कि हर गद्य लेखक को ज़रूरी तौर से मार्खेज़ को अवश्य पढ़ना चाहिए। गद्य का प्रवाह, बाँधे रखने की कला और यथार्थ को रोचक स्वरूप में विन्यस्त कर प्रस्तुत करना वहाँ से सीखा जा सकता है।