रविवार, 23 सितंबर 2007

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'सेज़' एक ऐसा शब्द है जिसे आज अर्थशास्त्री , विद्वान, पत्रकार, बुद्धिजीवी और राजनीतिकर्मी ही नहीं आमआदमी भी जानता है। कहावत है 'लोहे का स्वाद लोहार से नही उस घोडे से पूछो, जिसके मुन्ह मे लगाम है' !स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन यानी एस.ई.जेड। अभी कल नवी मुम्बई मे रिलायंस और टाटा की सूचना प्रौद्योगिकी के लिए सरकार ने इसी 'सेज' के तहत उनकी कंपनियों को ज़मीन मुहैय्या कराई है। इसबार शायद मामला किसानों की ज़मीन से नहीं जुडा है इसलिये सबकुछ खामोशी के साथ सम्पन्न हो गया। कोई हल्लागुल्ला, कोई मीडिया हाइप नही.... । बल्कि ठीक इसके साथ-साथ यह खबर भी दी जा रही है कि बंगाल की वाम -मोर्चा सरकार के सूचना मन्त्री महोदय ने भी अपने राज्य के लिये दो लाख आइ टी प्रोफ़ेशनल की ज़रूरतबताई है। जाहिर है वहाँ भी अब नन्दीग्राम और सिंगूर के बाद कहीं और गरीबों किसानों की ज़मीन आइटी कम्पनियों के लिए छीनी जायेगी ।लेकिन एक और सेज़ है, जिसके बारे मे ज़्यादातर चुप्पी है .... । यह दूसरा सेज़ भी पहले वाले बहु-प्रचारित सेज़ केहितो को ध्यान मे रखते हुए ही लागू किया जा रहा है। इस सेज़ की चपेट मे भी देश के गरीब आदिवासी औरवनवासी है। क्योकि नये आर्थिक - तकनीकी विकास के इस सूत्र को अब हर कोई समझने लगा है कि गरीब हीगरीबी का असली कारण है और अगर फकत मुठी भर अमीरों के की अमीरी और अधिक बढाने के राष्टीय उद्देश्यको पूरा करने के लिए देश को १०% के आर्थिक विकास दर को बनाए रखना है तो गरीबो और आदिवासियो कोउनकी ज़मीनो, घरो, जन्गलो, खेतो से बेदखल करना ही पडेगा। १९७५ का मशहूर 'गरीबी हटाओ' का नारा अबगरीब हटाओ' के निर्मम अमलदारी मे बदल चुका है। छ्त्तीसगढ का बस्तर इस नये विकास 'अभियान का इलाका हैयानी इसी ज़गह वह 'दूसरा सेज़' लागू है, जिसका ज़िक्र अभी किया गया था। जब दूसरा सेज़ कम्पलीट होजायेगा तो यहाँ भी आइ टी से लेकर तमाम खनिज कम्पनियाँ सरकार द्वारा दी गयी ज़मीनो पर 'पहले वाले सेज़' कानून के तहत .... कब्जा करेन्गी।आप जानना चाहेगे कि यह दूसरा 'सेज़' क्या है, तो हम बताये देते है : यह है -'स्पेशल एन्काउन्टर ज़ोन' (एस इज़ेड )विख्यात साहित्यिक पत्रिका 'पहल' के नये अंक मे शाकिर अली की कविताये दूसरे 'सेज़' की हिंसक त्रासदी मे घिरेबस्तर के जीवन की ऐसी छवियाँ प्रस्तुत करती है जो न सिर्फ़ हमारी स्मृतियो मे गूजती रह जाती है बल्कि हमेभीतर से बेचैन और उद्वेलित करती है। गौर से देखे तो इस हिंसक सेज़ के अभियान के लिये चलाये जा रहे 'सलवाजुडुम' के पीछे एक भयावह फ़ाशीवादी षडयंत्र है.... एथ्निक क्लीन्ज़िन्ग .... जातीय संहार .....एथ्निक जेनोसाइड। अमेरिका आस्ट्रेलिया के आदि -निवासियों (अबोरिजिंस ) के साथ वहाँ के आप्रवासी गोरों ने यही किया था। यह एक कामयाबअमानवीय समाजार्थिक फार्मूला है। बस्तर के आदिवासियों के उन्मूलन के संदर्भ मे यह इसलिए और भी भयावहहै क्योंकि इसमे उस शक्तिशाली हिंदू सवर्ण के तामाम हिस्सों की गुप्त और प्रछन्न सहमति शामिल है जिन्हे हमआधुनिक और मानवीय राजनीति की लफ्फाजी करते हुए अक्सर देखते हैं ।बहरहाल, जब हमारी आज की समकालीन हिन्दी कविता दिल्ली, भोपाल और दूसरी राजधानियो के कवियों कीमित्र मन्डलियो के उबाऊ और एक-दूसरे को उठाने-गिराने की लिजलिजी भाषाई बाजीगरी, महान होने औरमहान बनाने की संस्थाखोर जुगाडू तिकडम और विचारधाराओं की आड़ में हिंसक जातिवादी अभियानों मे बदलचुकी है...शाकिर अली की कविता विपदा मे घिरे हमारे समय के कमज़ोर और गरीब लोगो के जीवन के भयावहदृश्य प्रस्तुत करती है । १९७५ कें आपातकाल कें दौर मे इन्ही शाकिर अली का लेख छापने कें जुर्म मे पहल सम्पादक (हिंदी के अप्रतिम कथाकार - ज्ञानरंजन ) १९ महीने की लिए मीसा मे जेल जाते-जाते बचे थे । उस समय वह लेख लोकतंत्र की हिफाजत की पक्षमे था और अब यह कवितायेँ मनुष्यता और उसके जीवन के अधिकार और उसकी शांति-स्वतंत्रता के पक्ष में हैं । आप भी देखे कुछ कविताये :एनकाउन्टर डेढ़ सौ बचे बैगा जनजाति को बचाने के लिएडेढ़ करोड़ स्वीकृत किये गए हैं ,और डेढ़ हज़ार करोड़एनकाउन्टर के लिए रख दिए गए हैं ?स्कूल बंद है मोटरसाइकिल से स्कूल जाते गुरूजी कोकिसी ने आवाज दी - रुको !गुरूजी डर के मारे नहीं रुके ,पता नहीं जंगल में कौन रोक रहा है ?पीछे से गोली चली,गुरुजी खून से लथपथ गिर पडे थे,तभी से कोन्गुड का स्कूल बन्द है !!बहस आज बस्तर के हालात पर कोई कुछ नहीं बोलतान बस में न ट्रेन में ,न होटल में और न पान दूकान मे,सब चुप रहते हैं , डर के मारे !वैसे भीयुद्धभूमि में बहस नहीं चलती ,सिर्फ गोलियाँ चलती हैं।लम्बी लडाई ?शिक्षक सन्घ ने शिक्षा कर्मियो कीमौत पर शोक प्रगट करते हुए'लम्बी लडाई' की बात कही थीऔर,प्रशासन से उन्हे 'सुरक्षा' देने कीमान्ग की थी ।

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