गुरुवार, 20 सितंबर 2007

हर बुद्ध के साथ एक देवदत्त पैदा होता है, और हर गांधी के साथ एक गोडसे... लेकिन कुमारेन्द्र के साथ पैदा हुए थे अतुकांत।देवदत्त खुद को बुद्ध से बड़ा विचारक मानता था, गोडसे खुद को गांधी से बड़ा हिन्दू।इसी श्रृंखला में अतुकांत का दावा था कि वह कुमारेन्द्र से बड़ा कवि है।बुद्ध या गांधी अवतारी नहीं हुआ करते। जीवन की परिस्थितियां उन्हें बुद्ध या गांधी बना देती हैं। सिद्धार्थ जीवन का कटु यथार्थ न देखते, तो शायद बुद्ध न बनते; मोहनदास अंगरेजों द्वारा ट्रेन के डब्बे से फेंके न जाते तो ाायद मोहनदास ही रह जाते, महात्मा गांधी न बनते। लेकिन देवदत्त और गोडसे के साथ यह सब नहीं चलता। वे परिस्थितियों से जन्मे या उनके दास न होते-जन्मता महान् होते हैं-अवतारी पुरु ा।अतुकांत अवतारी पुरु ा ही थे। जन्म से ही कवि। अवतारी कवि। नाना प्रकार की कथाएं-परिकथाएं उनके बारे में प्रचलित थीं। बहुत कम उम्र में ही वे लिजैंन्ड बन चुके थे। जैसे तुलसीदास के बारे में किंवदंतियां हैं कि जन्म से ही उनके बत्तीसों दांत थे या कि जन्मते ही उन्होंने रामनाम का उच्चारण किया था और इसीलिए उनका पुकार नाम रामबोला हो गया-तो अतुकांत के बारे में भी ऐसे कई लटक-झटक थे। तुलसीदास की तरह दांत तो नहीं; लेकिन उनकी गझिन दाढ़ी के जन्म से ही उनके साथ हाने की बात कही जाती थी। और चूंकि रामनाम उच्चारने का युग नहीं था, इसलिए यह कहा जाता था कि प्रचलित प्राइमरी मनोहर पोथी की जगह निराला की प्रसिद्ध कविता 'राम की ाक्ति पूजा` से उन्होंने पढ़ाई की ाुरूआत की। यही उनका ककहरा था। कहते हैं इस कविता ाी र्ाक में विद्यमान ाक्ति को ही आधार बनाकर उनका नाम रखा गया ाक्तिकुमार। विद्यालय-महाविद्यालय के प्रमाण-पत्रों में उनका यही नाम आज भी है। अतुकांत तो उनका कविनाम था। कहते हैं उन्हें यह नाम प्रसिद्ध आलोचक रामविलास ार्मा ने दिया था।अतुकांत क्रांतिकारी कवि थे और केवल क्रांतिकारी कवि ही नहीं, अलग से क्रांतिकारी भी थे। उनका कहना था, जो क्रांतिकारी नहीं होते वे जीवन का यथार्थ समझ ही नहीं पाते। वे संस्कृत का एक लोक सुनाते थे जिसका भावार्थ था, जो बढ़िया ब्रह्मचारी नहीं होते, अर्थात् जिनका ब्रह्मचर्य ही डंवाडोल होता है, उनका गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास सब डंवाडोल होता है। इस लोक का इस्तेमाल वह अपनी इस उक्ति का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए करते थे कि जो ढंग के क्रांतिकारी नहीं होते, उनका आगे का जीवन भी डंवाडोल होता हे।कहते हैं नक्सल आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। खुदीराम बोस की तरह कच्ची उमर में ही वह क्रांतिकारी बन गये थे बम-पटाखों के अनुभव भी सुनाते थे। नक्सवालदी आंदोलन सन् ६९ में ाुरू हुआ था, लेकिन वे सन् ६४ से ही उसके साथ थे। ईस्वी सन् की भूल पकड़े जाने पर उन्होंने स्प ट किया ६४ से ६९ तक वे आंदोलन की पीठिका तैयार करते रहे। आंदोलन के नामी-गिरामी नेताओं में कई थे, जिन्हें वे अपना शि य बतलाते थे। उनका कहना था क्रांति जब रास्ते से भटक गयी, तब से उससे अलग हो गये। आंदोलन के लोगों का कहना था क्रांति नहीं, कवि ही भटक गया था।इस क्रांतिकारी जीवन को वे होल-टाइमरी का जमाना कहते थे। इस जमाने में लिखी उनकी कविताओं का एक संकलन 'लाल सितारा` ाी र्ाक से प्रकाशित हो चुका था। नवजागरण प्रकाशन भोपाल से प्रकाशित इस संकलन में उनकी छप्पन कविताएं थीं। और ाायद यही कारण था कि ाहर में यह संकलन 'छप्पन छुरी` के नाम से चर्चित हुआ। उनके जीवन की ही तरह उनका संकलन भी लिजेन्ड बन गया था। कहा जाता था, इसकी कविताओं को पढ़कर कुछ लोगों को बुखार हो आया। एक पुलिस अफसर इसे पढ़कर पागल हो गया। जिस हॉल में इसका विमोचन हुआ, उसमें खुद-ब-खुद आग लग गयी। लड़कियों से जुड़े भी कुछ किस्से थे, जिसे सेंसर के कारण यहां देना मुनासिब नहीं होगा।जैसा कि उनका कहना था, चीन देश की यात्रा वह कर चुके थे। इस यात्रा के बारे में भी उनके दिलचस्प संस्मरण थे, जिसे वह विस्तार से लिख भी चुके थे। एक दैनिक में उनका यह वृत्तांत धारावाहिक छप चुका था। जैसा कि सब लोग जानते हैं, माओ-च-तुंग की मृत्यु १९७६ में हुई थी। और वह १९८० के बाद चीन गये थे। लेकिन उनका दावा था माओ से उनकी मुलाकात हुई थी। इस मुलाकात का दिलचस्प वर्णन उन्होंने अपने यात्रा-वृत्तांत में किया था। उनके अनुसार चीन के मौजूदा ाासकों ने अपने स्वार्थ में यह प्रचार कर रखा है कि माओ मर गये। मंयूरिया इलाके के एक गांव में माओ आज भी किसान का जीवन जी रहे हैं। इस स्थल तक वह बहुत मुश्किल से गये। देखा माओ मुर्गियों को दाना दे रहे हैं। कवि के जाने पर यथोचित स्वागत हुआ। माओ लाल सलाम को भूले नहीं हें। बांस के खूबसूरत मोढ़े पर उन्हें बैठाया गया। माओ ने इन्हें अपने हाथों से बनाया था। गांधी की तरह माओ भी कई हस्तकलाओं में पारंगत हें। बकरी की जगह वह मुर्गी पालते है। सबसे महत्व की बात थी कि माओ हिन्दी बोल रहे थे। हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता हिन्दी को भले ही हिकारत की नजर से देखते हैं, माओ हिन्दी प्रेमी हैं। और ऐसे-वैसे हिन्दी प्रेमी नहीं, 'राम की ाक्ति पूजा` जैसी क्लि ट कविता उन्हें जुबानी याद है। यहां के कम्युनिस्टों के पास न कोई सांस्कृतिक दृि टकोण है, न ाऊर। इन्हें माओ से सीखना चाहिए।ाऊर और तमीज कवि के प्रिय ाब्द थे। प्रिय से तात्पर्य यह कि इसका इस्तेमाल वह प्राय: करते थे फलाने को इस बात का भी ाऊर नहीं कि... या फिर, उसके पास भा ाा का काई तमीज नहीं है... या इसी राग में कुछ और। इन्हीं ाी र्ाकों से उनकी दो हाइकू कविताएं भी थीं। उनके लेखों में भी ये ाब्द बारंबार आते थे। लेकिन उनकी बातचीत में, एक ाब्द जो खूब आता था, वह था एथू। यह उनका तकिया कलाम था। इसलिए अंतरंग चर्चाओं में ाहर के साहित्यकार मजा लेने के लिए उन्हें कवि एथूदास कहते थे।कविता और क्रांति के अलावा अतुकांत के कई अन्य ागल भी थे। हिन्दी प्रचार, अनुसंधान, लोक संस्कृति आदि से उनका गहरा रिश्ता था।अंग्रेजी और अंगरेजी संस्कृति के वे परम विरोधी थे। लोहिया साहित्य के अध्ययन ने उनके अंग्रेजी विरोध को और गाढ़ा बना दिया था। लेकिन उनका अंग्रेजी ाराब से कोई विरोध नहीं था। उनके कमरे में और कुछ रहे, न रहे, एकाध बोतल अंग्रेजी ाराब अवश्य होती थी। ाराब में सोडा या पानी मिलाना अपनी ाान के खिलाफ समझते थे उन्हें नीट चाहिए होता था। कभी-कभी इस नीट में भांग घोल कर उसे और घनीभूत करते थे। यह उनका अपना प्रयोग था। उनका दावा था, पूरे जंबू द्वीप में कोई माई का लाल इसे नहीं पचा सकता। जब वह इसके ट्रांस में होते थे, तब उनसे कुछ सुनने का अपना ही मजा होता था।यह सब उस दौर की बात है जब नक्सलवादी आंदोलन अपने उफान पर था। कलकत्ता ाहर और बंगाल के केई ग्रामीण इलाके इसके प्रभाव में थे। दूसरे प्रांतों में भी इसका तेजी से फैलाव हो रहा था। सैकड़ों उत्साही नौजवानों को पुलिस ने बर्बरता पूर्वक मार डाला था। किसी भी किस्म के आंदोलनकारी को पुलिस झट से नक्सलवादी कह देती थी। जे.पी. तक के नक्सलवादी होने की बात कही जा रही थी। बंगाल, बिहार और आंध्र प्रदेश के अनेक हिस्से पुलिस छावनी बन चुके थे।ऐसे में क्रांतिकारी कवि अतुकांत अपनी कवितओं में लोक संस्कृति के रंग भरने लगे थे। मादा मन की भी कई कविताएं उन्होंने इन दिनों लिखी थीं। चिड़िया, फूल और बच्चे जेसे तत्व उनकी कविता के सरहद में अब तक नही थे। अब वे भी आने लगे। कवि ने इन्हें छुआ-सहलाया भी। अपना अलग व्यक्तिव उभारने के लिए वे प्राण-पण से जुट गऐ। मेहनत ने असर किया। कुछ नाजुक कवियों से उनकी मित्रता हुई। इस क्रांतिकारी कवि के विकास पर वे प्रसन्न थे।लेकिन इस प्रक्रिया में उनके पुराने मित्र छिटक गये। जिस नयी जमीन पर वह खड़े थे, वह उनके लिए अनजानी-परायी थी। कुछ मित्र मिल जाना और बात है, हकीकत यह थी कि अतुकांत इस दुनिया के लिए प्रवासी पक्षी ही बन सके। इस हिस्से के कवियों ने उन्हें हमेशा विजातीय नजरिये से ही देखा। नतीजा हुआ कि उनके लिखने पर पाला पड़ गया। एक-एक कविता पर महीनों काम करते और जब उसे किसी पत्रिका को भेजते तो वह वैसे ही लौट आती जैसे आईने से परावर्तित होकर कोई किरण। उनका जी उचट गया। अवसाद के इन्हीं क्षणों में उन्होंने लिखा- 'हम तो दोनों ठिकानों से गये।`ये वही दिन थे जब रामविलास ार्मा आलोचना से विमुख होकर इतिहास से अभिमुख हुए थे। अतुकांत को भी लगा, वाकई इतिहास हारे हुओं के लिए हरनाम है। सुकून वहीं मिल सकता है। इतिहास का अर्किडिया उन्हें भी आकि र्ात करने लगा। कविताओं से मुक्त हो वे इतिहास की ारण में आ गये। यहां पत्र-संपर्क और परिचय कोई मदद नहीं कर सकता था। जम कर पढ़ बिना यहां कुछ चलने वाला नहीं था। अतुकांत जी पढ़ाई पर एक बार फिर जमे। जो भी मिला-जैसा भी मिला धंुआधार पढ़ाई की। मन लगने लगा। कविता तो कोई भी कर सकता है। लेकिन इतिहास की साधना। सबसे संभव है क्या? कदापी नहीं। अब जाकर उन्हें लगा कि इतिहास के संधान के बिना उनका जीवन अधूरा था। इसके बिना तो ढंग से कविता भी नहीं लिखी जा सकती। व र्ाों उन्होंने इतिहास को ओढ़ना-बिछौना बनाये रखा। भाजपाईयों की तरह उनका भी मानना था कि इतिहास को एकपक्षीय नहीं होना चाहिए। इस नजरिये को लेकर रामविला ार्मा जहां मोटे-मोटे ग्रंथ लिख रहे थे, वहां वे पुस्तिकाएं लिख रहे थे। दर्जन भर से अधिक उनकी पुस्तिकाएं छप चुकी थीं। उनका मानना था क्रांति किताबों से नहीं इन कितबियों से होगी।इन फुटकर लेखन के साथ उनका एक ाोधपरक ग्रंथ 'कवि कुंभनदास` भी प्रकाशित हुआ। यह ग्रंथ लिख कर एक तरह से वह अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्त हुए थे। उनका दावा था कि कुंभनदास उनके पूर्वज थे। उनकी पच्चीसवीं पीढ़ी में वे स्वयं को रखते थे। खुद को उनकी ही तरह खुद्दार बनाये रखने में उनका बहुत नुकसान हो चुका था। लेकिन कुल की परंपरा बनाये रखना उनके लिए महत्त्वपूर्ण था। अपनी ताजा कृति जब उन्होंने कवि कुंभनदास को समर्पित की थी, तब लोगों को अटपटा लगा था। लेकिन जल्दी ही यह बात ाहर में फैल गयी कि कवि अतुकांत कुंभनदास के वंशज हैं। इस चर्चा से उन्हें फायदा ही हुआ। कुंभनदास कॉलेज में उन्हें व्याख्याता का स्थायी पद मिल गया। वे साहित्य के अध्यापक हो गये। अच्छी तनख्वाह मिलने लगी। उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा- 'जिन्दगी अब स्थायित्व ले रही है। अब साहित्य का काम निश्चिंत होकर कर सकूंगा। इसे नयी जिन्दगी की शुरूआत ही कहिये।`नयी जिन्दगी की इसी शुरूआत में उनकी कविताओं का दूसरा सकंलन प्रकाशित हुआ। 'उपरांत` शीर्षक इस संकलन में उनकी वे कविताएं थीं, जो क्रांतिकारी दौर के बाद लिखी गई थीं। कोमल प्रकाशन ने इसे सुरूचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया था। कवि का पत्र-संपर्क अब तक अच्छा-खासा हो चुका था। इस संपर्क का उन्होंने भरपूर इस्तेमाल किया। चारों तरफ समीक्षाएं छपीं। लेकिन कविजी का भाग्य। कवियों के समाज में उन्हें कोई खास जगह नहीं मिल सकी। 'इतिहास में कुछ समय के लिए जो भटक गया था, उसी का खामियाजा भुगत रहा हूं और कुछ नहीं। जल्दी ही सब ठीक कर लूंगा। उन्होंने अपना इरादा पक्का किया। कमर कसी। कठिन परिश्रम कर अपने अंदाज में कुछ धांसू कविताएं लिखीं। कई तरह के पापड़ बेल कर कुछ धांसू पत्रिकाओं में छपवायीं भी। लेकिन फिर कोई नोटिस नहीं....कविजी कौंच कर रह गये।साहित्य के वातावरण को उन्होंने जम कर कोसा। 'साहित्य में प्रदूषण` शीर्षक से एक साहित्यिक मासिक मेंे लेख भी लिखा। किसी चीज का कोई असर नहींं। लेकिन कविजी ने हार नहीं मानी। इन्हीं दिनों उनका संपर्क 'कंवल` पत्रिका के नामी संपादक और भूतपूर्व कवि चिनगारी जी से हुआ। संपर्क के कुछ ही समय बाद दोनों को एक दूसरे के कवि कुंभनदास के खानदान से जुड़े होने की जानकारी हुई। इस जानकारी ने संपर्क को प्रगाढ़ बना दिया। चिनगारी जी अतुकांत से वय में कोई दस साल बड़े थे। लकिन बड़प्पन का परिचय दिया अतुकांतजी ने। चिनगारी जी को भईया कहना शुरु किया। चिनगारी जी के नाम उनके पत्रों की शुरुआत पहले प्रिय चिनगारी जी से हाती थी, अब हाने लगी पूज्य भइया से। पूज्य भइया ने अपनी पत्रिका का एक विशेषांक अतुकांत पर निकाल। कई आलेख उनकी कविताओंे पर लिखवाये गये। लेकिन साहित्य की दुनिया ऐसी असंवेदनशील कि विशेषांक की कोई खास नोटिस नहीं ली गई। कहने वालों ने कहा उसे कूड़ेदान में भी जगह नहीं मिली।साहित्य के इसी असंवदेनशील आचरण ने कवि अतुकांत को देखदत्त बना डाला। जिस कुमारेन्द्र को संस्कृति की कोई समझदारी नहीं, जो कभी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा, जिसके वंश में दूर-दूर तक कोई ककहरा जानने वाला नहीं, जिसे पहनने-ओढ़ने, उठने-बैठने, बोलने-बतियाने का शऊर नहीं, उसे कुमारेन्द्र की इतनी चर्चा। इतनी प्रतिष्ठा। और कविकुल शिरोमणि कुंभनदास के वंशधर, साहित्य के परम ज्ञाता, महान् आलोचक रामविलास जी के परम प्रिय, नक्सल मूवमेंट के होलटाइमर कवि अतुकांत की कोई नोटिस नहीं, तो इसका साफ मतलब है आज का साहित्य मीडियाकारों, लंपटों, अज्ञानियों और अकुलीनों द्वारा पोषित और इसलिए प्रदूषित है। ऐसे साहित्य पर थू करने के अलावा वह और क्या कर सकता है। अपनी प्रतिक्रिया के सिलसिले में कवि नागार्जुन की इन पंक्तियों को भी अपने अभिप्राय के साथ नत्थी किया-'साहित्य तेरा बुरा हो, काट लूं गला यदि हाथ में छुरा हो।`साहित्य का गला तो वह नहीं काट सकेे, एक बार अपना ही गला काटने अर्थात् आत्महत्या करने की कोशिश उन्होंने जरूर की किन्तु इसमें भी वे फिल रहे।। इस घटना ने उन्हें कुछ समय के लिए तोड़ कर रख दिया। हुआ यह कि आत्महत्या के प्रयास की खबर शहर के सबसे अधिक बिकने वाले दैनिक के तीसरे यानी नगर पृष्ठ पर एक कॉलम में बस 'इतना`-सा प्रकाशित हुआ। यानी उनकी हत्या-आत्महत्या की खबर भी, इस शहर इस समाज के लिए कोई अर्थ नहीं रखती? यदि वह मर जाता, तो क्या यह समाचार तीसरे पृष्ठ पर ही-और वह सिर्फ एक कॉलम में, उतना-सा ही प्रकाशित होता। इतना निरर्थक प्राणी है वह। उसकी साहित्यिक सेवाओं का बस यही मूल्य है। ज़रा स्थिर होकर उन्होंने अपनी डायरी में विस्तार से अपनी पीड़ा दर्ज की-'जिस पैशाचिक समाज ने निराला और रामविलास जी की कोई इज्जत कोई परवाह नहीं की, उससे कोई आशा, कोई उम्मीद रखना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है।` कवि ने एक लंबी कविता में इन भावों को अभिव्यक्ति दी। अनेक पत्रिकाओं से लौटकर जब कविता आई, तब उस पर अद्यतन तारीख डालकर एक मार्मिक पत्र के साथ चिनगारी जी को भेजा। 'कंवल` के अगले ही अंक में संपादकीय टिप्पणी के साथ कविता प्रकाशित हुई। कवि के पास कुछ आत्मीय पत्र आये। जीने की आश्वस्ति मिली। चिनगारी भइया के रहते वह कैसे कह सकता है कि साहित्य में उसके लिए जगह नहीं है। अनेक कवि-लेखक ऐसे हुए हैं, जिनके महत्व को उनके जीवन में नही समझा गया। शायद वह ऐसा ही कवि है। भविष्य की महाकवि।वह धीरे-धीरे संतुलित हो रहे थे। इसी तरह चल रहा होता, तो संभवत: वह जल्दी ही सामान्य भी हो जाते। लेकिन फिर एक 'दुर्घटना` हुई। कुमारेन्द्र को इन्हीं दिनों साहित्य का एक प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल गया। और वह भी किस संकलन पर! जिसका ब्लर्ब लिखाने के लिए कुमारेन्द्र कोई दस दफा आया होगा। आखिर वह क्या करता। लिखना पड़ा उसे शंकर की तरह वह भावनाओं का शिकर हो जाता है। और नहीं तो क्या। ब्लर्ब ही इतना प्रभावशाली था कि पुरस्कार चयन समिति के लोग प्रभावित हो गये होंगे। पूरा संकलन पढ़ने की फुर्सत किसे रहती है। फिर कुमारेन्द्र के जुगाड़ का क्या कहना। राजनैतिक संपर्क भी उसके कम हैं क्या। निश्चय ही राजनैतिक दखलअंदाजी भी हुई होगी। साहित्य का प्रदूषण यूं ही तो नहीं बना हुआ है।बड़ी मुश्किल से उन्होंने ज्लां पॉल सार्त्र की एक तस्वीर कहीं से जुटायी। इन दिनों यह तस्वीर उन्हें बेहद प्रिय थी। उन्होंने अपने कमरे में इसे ऐसी जगह लगाया था, जिससे यह आसानी से दिख सके। आने वालों से कहते, लेखक यह है..नोबेल पुरस्कार मिला और इसने लतिया दिया। लेखक ने पुरस्कार की हैसियत बता दी। इसको लेखक कहते हैं। पुरस्कार की नाव पर साहित्य की यात्रा करते हैं, वे और लोग होते हैं।यही सब बड़बड़ाते, बतियाते उन्होंने स्वयं को ऐसा बना लिया कि शहर में यह खबर फैल गई कि अतुकांत जी एक बार फिर अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं। इस बार वे कुछ अधिक ही असामान्य थे। इसका पता इससे चला कि जिस अंग्रेजी से वह नफरत करते थे, उसका इस्तेमाल इन दिनों कुछ ज्यादा करने लगे थे। इन दिनों इसी में वह सामान्य पत्राचार भी करते थे।कुंभनदास कॉलेज के पिं्रसिपल ने उनकी अस्वस्थता को गंभीरता से लिया। कवि कुंभनदास के वंशधर कवि अतुकांत कॉलेज की शोभा हैं। इनकी सेवा पाकर कॉलेज कृतार्थ हुआ है। कॉलेज का परम धर्म है कि वह कवि के इलाज की समुचित व्यवस्था करे। मेधावियों को मानसिक बीमारी होती रहती है। राहुलजी जैसा महापंडित भी मानसिक व्याधि से ग्रस्त होना ही यह सिद्ध करता है कि वे परम मेधावी है। हम उन्हें ऐसे ही कैसे छोड़ सकते हैं।शहर के सबसे बड़े मनोरोग चिकित्सक डाक्टर पिपलानी थे, जिन्होंने उस पुलिस अधिकारी का इलाज किया था, जो अतुकांत की कविताओं को पढ़ कर असामान्य हो गया था। तो यह रहा खुराफ़ाती कवि। डाक्टर मुस्कुराये। तीन दिनों तक गहन जांच चलती रही। इस बीच पाया गया कि कवि की आंखें कुछ ज्यादा तनीं हैं। चेहरे पर भी भयानक तनाव तिरा होता था। डॉक्टर ने कवि की स्थिति को चिन्ताजनक बतलाया।बीमारी का हाल जान चिनगारी जी दौड़े आये। उनके आने से शहर के तमाम रचनाकारों में कवि के प्रति भावना उमड़ी। चिनगारी जी ने बाजाप्ता प्रेस-कांफ्रेंस कर अतुकांत की विक्षिप्तता की तुलना निराला की विक्षिप्तता से की।फिर तो बयानों और गोष्ठियों का तांता लग गया। अखबारों में लेख और संपादकीय लिखे जाने लगे। गवर्नर और मुख्यमंत्री अतुकांत जी से मिलने आये। सरकारी सहायता की पेशकश की गयी। साहित्य का मनीषी विक्षिप्त हो रहा है, इसका अर्थ है हमारा सांस्कृतिक संकट गहरा है।इन दिनों उनकी कविताएं भी चर्चा में आयीं। उत्साही नौजवानों के सांस्कृतिक दल ने उनकी कविताओं के पोस्टर बनवाये। इन पोस्टरों की जगह-जगह प्रदर्शनियां लगीं। 'लाल सितारा` और 'उपरांत` की प्रतियां भी बिकीं। उनके संपूर्ण साहित्य परा शोध करने के लिए यूनिवर्सिटी की एक छात्रा ने निबंधन करवाया। फिलहाल कुमारेन्द्र काफी पीछे छूट चुके थे। साहित्याकश में अतुकांत जी भोर के तारे की तरह सुर्ख जमे हुए थे। क्षितिज पर केवल वह थे, दूर-दूर तक दूसरा कोई नहीं था।जब सारी दुनिया अतुकांत जी के लिए हाय-हाय कर रही थी, तब वे इत्मीनान से अपनी डायरी लिख रहे थे और इसी क्रम में एक रोज उन्होंने लिखा-'पहली बार जीवन में जीत हासिल हुई है। कुमारेन्द्र के पुरस्कार पाने के समाचार को अपनी अस्वस्थता के समाचार से दबा दिया मैंने। इसमें मुझे इतना आनंद आया जितना गोटफ्रिट लिबनिज को दबाने-सताने में न्यूटन को न आया होगा। साहित्यिक समाज ने पहली बार मेरे प्रति हमदर्दी जतायी। चिनगारी भाई के ऋण से इस जन्म में तो उऋण नहीं ही हो सकता। कॉलेज के प्रिंसिपल सहित अन्य मित्रों ने भी पहली बार इतनी सहृदयता दिखलायी...मन गुब्बार बनता हुआ अंतरिक्ष में हौले-हौले उठ रहा था..कि अचानक अवरोह का एक भाव आया.. मन में एक बड़े प्रश्न की तरह उठा-लेकिन.. लेकिन सब मिलाकर निष्कर्ष क्या निकला??? यही न कि साहित्येत्तर चीजों को लेकर ही लोग साहित्य में चर्चित होते हैं। मैं अपनी कविता के द्वारा उस तरह चर्चित नहीं हुआ जिस तरह अपनी बीमारी से। यही तो हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए था..`'..जो नहीं होना चाहिए था` इस वाक्य पर आकर अतुकांत रुक गये। कुछ समय तक बिल्कुल खामोश रहे। फिर इस वाक्य के नीचे लगातार कई बार रेखायें भी खींचते रहे। ऐसा लग रहा था कि वे खुद में खोये जा रहे हैं। जैसे कोई रूहानी चीज उनके भीतर समायी जा रही थी और वे सुध-बुध खोये बैठे थे मानो आत्म सम्मोहन की स्थिति में आ ये हों।उन्होंने कलम रख दी। उठ कर खड़े हो गये। खिड़की तक आये। यूं ही बार झांक कर देखा। अपनी ही परछाइंर् थी। देर तक उसे ही देखते रहे उसी से बात करने की इच्छा हुई-कहो अतुकांत, कैसा चल रहा है? परछाइंर् उन्हीं की तरह खामोश रही। कुछ समय तक खेड़े रहकर वे पीछे लौट गये। दोनों हाथ पीछे कर कमरे में चहलकदमी करते रहे। कुछ सूझा और आलमारी तक आये। उन पर जो लेख, टिप्पणियां, चर्चायें छपी थीं, उनके कतरन बहुत संभाल कर उन्होंने एक जगह रखा था। उसे इकट्ठे निकाल। उलट-पुलट कर देखते रहे। चिनगारी जी की प्रेस-कांफ्रेंस, अनवर साहब का लेख, 'तीरंदाज` का संपादकीय लेख विभिन्न लेखक संगठनों की ओर से अलग-अलग और फिर संयुक्त वक्तव्य, यूनिवर्सिटी के छात्रों द्वारा दिया गया धरना, गवर्नर से मिलने जा रहा लेखकों का शिष्ट मंडल, प्रतिपक्ष के नेता द्वारा विधान सभा में उठाया गया सवाल, मुख्यमंत्री के साथ मुख पृष्ठ पर प्रकाशित अपनी तस्वीर.. अतुकांत जोर-जोर से हंसने लगे। कमरे में कोई नहीं था और वे हंसे जा रहे थे। ..इसी हंसी के बीच उन्होंन कतरनों की चिन्दियां बनानी शुरू की। बड़बड़ाये..स्साली ख्याति! तेरी ऐसी की तैसी। हिपोंक्रिसी की भी हद होती है। नहीं बनना मुझे कवि। मैं अतुकांत ही काफी हूं। ..उससे भी न हुआ तो अपना शक्ति कुमार....और एथूदास? ..जैसे भीतर से किसी ने गहरे व्यंग्य के साथ प्रश्न किया। उसे मालूम था शहर के कुछ मित्र एथूदास कहकर उसका मजाक उड़ाते हैं। वह मुस्कुराया। हां, एथूदास भी बुरा नहीं है। चाहे जिस रूप में करें मेरी चर्चा ही तो करते हैं लोग। भूल नहीं गये हैं न मुझे। और जब एथूदास कहते हैं, तब इसका मतलब है कहीं-न-कहीं मुझसे प्यार भी करतेे हैं। उसने याद किया किस तरह वह माया अपनी अनुरागी सहपाठी को उसी की एक बात लेकर चिढ़ाया करता था। वह किस तरह चिढ़ती और वह खिलखिलाता था। दरअसल प्यार में पेंगे मारने के दिन थे वे।एथूदस! अब तुम किसी से प्यार नहीं करते। हमेशा तने रहते हो। मान-सम्मान और स्थापित हाने की चिंता में तुम अमानवीय होकर हर गये हो। दिन-रात अपना झंडा गाड़ने की फिराक में लगे तुम कितने हास्यास्पद हो गये हो, इसका पता भी है तुझे! चिड़िया, फूल, पत्ते सबसे तुम जुड़े, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा साथ लेकर। महत्वाकांक्षा लेकर प्यार नहीं किया जाता कवि। समर्पण के साथ प्यार होता है। खुद को मिटाना पड़ता है। और तुम हो कि दुनिया को मिटाना चाहते हो खुद के लिए। हुंह...वह बिस्तर पर आ गया। अच्छा महसूस कर रहा था। डायरी को एक बार फिर उठाया। सहलाया। कलम लेकर कुछ अनर्गल रेखायें खींचता रहा।..और उस रात उसने फिर एक कविता लिखी। शीर्षक दिया- कुमारेन्द्र के लिए। कविता के नीचे लिखा- एथूदास।

2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

shashi,dekho tum kitne chutiya aaur besharm ho ki bina puchhe ya aabhar vyakta kie tumne mere blog se matter uda liya. tum par mukadma hoga ab.

Unknown ने कहा…

maine aaj thane me rapat likha dee hai aaj. kal tum giraftar ho jaoge. agar kahi risvat nahi feke to.