गुरुवार, 6 अगस्त 2009

दफ़्तर / हरे प्रकाश उपाध्याय




मेरे घर से दफ़्तर की दूरी


अलग अलग जगह रहने वाले


मेरे सहकर्मियों के लगभग बराबर


एक तरफ़ से मापो तो सोलह घंटे हैं


दूसरी तरफ़ से आठ घंटे हैं


रोज़ रोज़ जंज़ीर गिराओ तो कुछ समय,


जो कि दूरी का भी एक पैमाना है इधर से उधर सरक जाता है


इस तरफ़ से मापो तो भागा-भागी है, कांव-कीच है


एसाइनमेण्ट, कान्ट्रैक्ट, सैलरी, एबसेण्ट आदि की सहूलियतें हैं


उस तरफ से मापो तो थोड़ी-सी नींद, थोड़ी-सी प्यास है


थोड़ी-सी छुट्टियों, रविवार, बाज़ार, इंडिया गेट, लोटस टेम्पल, बिड़ला मंदिर आदि के पड़ाव हैं


इन सारी चीज़ों का अर्थ राजधानी के दफ़्तर के निमित्त


ज़िन्दगी में लगभग एक ही है


हर चीज़ में थोड़ी सी रेत है, चप-चप पसीना है, बजता हुआ हार्न है


इस दूरी को जो रेल मापती है उसमें खूब रेलमपेल है


इन सब चीज़ों को जो घड़ी नचाती है


उसमें चांद, आकाश, प्रेम, नफ़रत, उमंग, हसरत, सपना सेकंड के पड़ाव भर हैं


यह साजिशों, चालाक समझौतों, कनखियों और सामाजिक होने के आवरण में


अकेला पड़ जाने की हाहा...हीही...हूहू...में व्यक्त समय है


इस घड़ी की परिधि घिसे हुए रूटीन की दूरी भर है


समाज की सारी घटनाएँ प्रायोजित हैं


जल्दी विस्मृत होती हैं अच्छा है... अच्छा है...


दफ़्तर और घर के बीच आ-जा रही ज़िन्दगी में


कोई दोस्त न दुश्मन है


सब सिर्फ़ मौक़े का खेल है


यों ही नहीं बदल जाता है रोज़ राष्ट्रीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का मुहावरा


ये सारे लोग लगभग एक जैसे जो चारों ओर फैल गये


इनकी ज़िन्दगी में थोड़ा-सा कर्ज, थोड़ा सा बैंक बैलेन्स थोड़ा-सा मंजन घिसा हुआ ब्रश है


बगैर साबुन की साफ़ शफ़्फ़ाक कमीज़ है पैण्ट है टाई है


आटो मेट्रो लोकल ट्रेन और उनका एक घिसा हुआ पास है


सुबह का दस है, शाम का दस है


बाक़ी सब धूल है जो पैर से उड़ कर सिर पर सिर से उड़ कर पैर पर बैठती रहती है


और पूरा शरीर उस उड़ान की बीट से पटा रहता है


महंगी कार में चलने वाले अपनी जानें यह कविता दूरी के बारे में सोचने वालों की कविता है


जैसे मेरी सुबह दफ़्तर जाने के लिए होती है


और शाम दफ़्तर से घर लौट आने के लिए


दोपहर दफ़्तर के लंच आवर के लिए रात में मैं दफ़्तर जाने के लिए आराम करता हूँ


सोता हूँ


उसके पहले टी०वी० देखता हूँ


बीवी को गले लगाता हूँ


उसके हाथों से बनाया खाना खाकर उसकी बाहों में जल्दी सो लेता हूँ


कि सुबह जब हो


मेरे दफ़्तर जाने में तनिक देर नहीं हो


तीन दिन की थोड़ी-थोड़ी देर पूरे एक दिन का भरपूर काम करने के बावजूद


आकस्मिक अवकाश होती है


नींद में मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ


सपने में दफ़्तर के सहकर्मियों के षड्यंत्र सूंघता हूँ


जिससे बहुत तेज़ बदबू आती है


इस बदबू में मुझे धीरे-धीरे बहुत मज़ा आता है


मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ


बॉस को चूतिया कह कर चिल्लाता हूँ


नींद में हाथ पैर भांज-भांज कर बॉस की, कलीग की, सीनियर की, जूनियर की


दफ़्तर के कोने में काजल लगाये बैठी उस लड़की की ऐसी-तैसी कर देता हूँ


इस तरह चरम-सुख पाता हूँ मैं


मेरे इस करतब को देख कर नहीं जानता बगल में जग गई पत्नी पर क्या गुज़रती है


जैसा कि उसे मैं जितना जानता हूँ हतप्रभ होती होगी


कहती होगी बड़े वैसे हैं ये


सुबह उठ कर पत्नी चाय बनाती है मेरी नींद के बारे में पूछती है


मैं अनसुना करता हूँ


और लगा रहता हूं युद्ध की तैयारी में एक औसत आदमी जैसा लड़ता है युद्ध


ब्रश, शेविंग, बूट पालिश, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ सब जल्दी में


इस बीच कभी भूल जाता हूँ फूल को पानी देना


किसी बच्चे को दो झापड़ मारता हूँ


पिता कहते हैं जैसे मुझे समझदार होना चाहिए मैं चिड़चिड़ा होता जा रहा हूँ


दफ़्तर जाकर काम निपटाता हूँ


इसको डाँटता हूँ उससे डाँट खाता हूँ


दफ़्तर में ढेर सारे गड्ढे इसमें गिरता हूँ, उसे फांदता हूँ


यहाँ डूबता हूँ वहाँ निकलता हूँ


कुर्सी तोड़ता हूँ कान खोदता हूँ


तीर मारता हूँ अपनी पीठ ठोकता हूँ


अख़बार पढ़ता हूँ देश में तरह तरह के फैसले हो रहे हैं


प्रधानमंत्री, फलां मंत्री इस देश जा रहे हैं उस देश जा रहे हैं


देश में यहाँ-वहाँ बम फूट रहे हैं


इसमें मुसलमानों के नाम आते हैं


और एक दिन कहीं किसी साध्वी के हाथ होने के सबूत भी मिलते हैं


तो तमाम राष्ट्रवादी उसकी संतई और विद्वता के किस्से बताने लगते हैं


उसे चुनाव लड़ाने लगते हैं


किसी प्रांत में कुछ लोग ईसाइयों की सफ़ाई में लग जाते हैं


हमारे दफ़्तर में इससे उत्तेजना फैलती है


इस आधार पर फाइलों को लेकर भी साजिशें होने लगती हैं


फिर कहा जाता है देश के कर्णधार ही सब पगले और भ्रष्ट हैं


तो हम जो कुछ कर रहे हैं कौन ग़लत कर रहे हैं


अलग-अलग गुट बन जाते हैं


और अपने गुट के कर्णधार को कुछ कहे जाने पर जैसे सबकी फटने लगती है


गुस्सा करने लगते हैं लोग ग़ाली-गलौज


प्रमोशन करने-कराने रोकने का यह एक आधार बन जाता है... बनने लगता है


हमने अपने-अपने घरों में मनोरंजन के लिए टी०वी० लगा रखा है


यह कम ज़िम्मेदार नहीं है हमारे द्रोहपूर्ण ज्ञान के विकास में


यहीं से हम नई-नई ग़ालियाँ, डिस्को, गुस्सा, प्यार करना और अवैध सम्बन्ध बनाना सीख आते हैं


और दफ़्तर में उसकी आजमाइश करना चाहते हैं


वहाँ एक से एक अच्छी चीज़ें हैं नचबलिए है,


लाफ़्टर शो हैं, टैलेंट हंट हैं, क्रिकेट मैच, बिग बॉस और एकता कपूर के धारावाहिक


पर मैं सोचता हूं इससे अपन का क्या


दफ़्तर न हो तो पैसा न मिले


पैसा न मिले तो केबल कट जाए


फिर ये साले रहें न रहें


भाड़ में जाए सब कुछ


गिरे शेयर बाजार लुढ़के रुपया


सुनते हैं गिरता है रुपया तो अपन की ग़रीबी बढ़ती है


बढ़ती होगी


अपन का क्या अपन कर ही क्या सकते हैं


बस सलामत रहे नौकरी


बॉस थोड़ा बदतमीज़ है


कलीग साले धूर्त हैं


कोई नहीं,कहाँ जाइयेगा सब जगह यही है


अपन ही कौन कम हैं


राजधानी में इधर बहुत बम विस्फ़ोट हो रहे हैं


क्या पता किसी दिन अपन भी किसी ट्रेन के इंतज़ार में ही निपट जाएँ


माँ रोज़ सचेत करती है


बेटा, ज़माना बहुत बुरा हो गया है


ख़ाक बुरा हो गया है


हो गया है तो हो गया है


अपन को कोई डर नहीं


मुझे तो दफ़्तर जाते न डर लगता है


न कोई उमंग न चिन्ता न ख़ुशी


यही है कि आने-जाने वाली ट्रेन लेट हो तो थोड़ी बेसब्री जगती है


सरकार पर थोड़ा गुस्सा आता है


बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर प्यार उमड़ आता है


वैसे वे कौनसी दूध की धुली हैं


आदमी तो सब जगह


एक से .

4 टिप्‍पणियां:

Pramod Ranjan ने कहा…

नेट पर घूमते-घामते शाशि के ब्‍लॉग तक पहुंच गया। अच्‍छी कविता है हरे भाई।

संदीप कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी कविता है हरे

Brajesh Kumar Pandey ने कहा…

बेहतरीन कविता बन पड़ी है .घुमक्कड़ी में अच्छा पढने को मिल गया.

प्रदीप कांत ने कहा…

अपन का क्या अपन कर ही क्या सकते हैं
बस सलामत रहे नौकरी
बॉस थोड़ा बदतमीज़ है
कलीग साले धूर्त हैं
कोई नहीं,कहाँ जाइयेगा सब जगह यही है
अपन ही कौन कम हैं

अच्छी कविता